SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 138
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सम्यक्श्रवण : श्रावक की भूमिका १२९ स्थापना की, वे थीं श्रावक, श्राविका, श्रमण और श्रमणी। भगवान के तीर्थ का एक जो आधार-स्तम्भ है, वह है श्रावक। श्रावक शब्द की व्युत्पत्ति श्रवण शब्द से ही हुई है। श्रावक वह है जो प्रतिदिन सम्यक् श्रवण करे। जो व्यक्ति महापुरुषों की वाणी का सम्यक् श्रवण प्रतिदिन नहीं करता, वह श्रावक नहीं हो सकता। श्रावक शब्द में तीन अक्षर हैं – 'श्र, व, क' । 'श्र' से श्रद्धा, 'व' से विवेक और 'क' से क्रियावान । अर्थात् वह व्यक्ति जो श्रद्धापूर्वक विवेक से अपनी क्रिया निष्पादित करे, वही श्रावक है। ___ 'श्रमण' वह है जो सुनने के बाद सही मार्ग पर चलने का श्रम करे। इसलिए सुनना ही प्रथम भूमिका है। भगवान कहते हैं कि तुम आचरण की जल्दी मत करो। पहले तुम सुनकर सम्यक् मार्ग को जानो। यदि व्यक्ति भली भाँति पूर्ण मनोयोग से सुनता है तो वह सुनना भी उसके आत्मकल्याण के लिए पर्याप्त है। आज व्यक्ति सुनकर ज्ञानी तो बन जाता है पर उसके पास यथार्थ ज्ञान नहीं होता, बल्कि ज्ञान के नाम पर सूचनाएँ और जानकारियाँ भर होती हैं। ज्ञान तो वह है जो उसके जीवन से प्रतिबिम्बित हो, सत्य तो वह है जो आचरण में मुखरित हो। __गलत और सही का फैसला सुनकर ही किया जा सकता है। भगवान जब समवसरण में अपनी देशना देते तो उनके वचनों को सुनने के पश्चात् ही कुछ व्यक्ति खड़े होते और कहते, 'भगवान हमने आपके मार्ग को भली भाँति समझ लिया है। अब हम आपके संघ में श्रमणत्व स्वीकारना चाहते हैं। वहीं कुछ व्यक्ति भगवान की देशना को सुनने के पश्चात् कहते, ‘भगवान, आपके मार्ग को भली भाँति जानने के पश्चात् ऐसा लगता है कि हममें इतना सामर्थ्य नहीं है कि हम श्रमणत्व को अंगीकार करें। हम श्रावक-जीवन को स्वीकार करना चाहते हैं।' भगवान का उत्तर एक ही रहता कि जिसमें तुम्हें सुख उपजे वैसा ही करो। व्यक्ति अपने देहबल, आत्मबल और मनोबल के आधार पर ही तो जीवन का मार्ग चुन सकता है। धरती पर जितने भी सत्संग होते हैं, उनके पीछे एक ही तो प्रेरणा होती है कि व्यक्ति श्रावक बने। वह निर्मलता, चित्त की शुद्धता और पवित्रता को प्राप्त करे। जो व्यक्ति भगवान की वाणी का जितना श्रवण करता है, उतने ही अंशों में उसका जीवन सार्थक है और जो व्यक्ति भगवान की वाणी के प्रति निरपेक्ष रहता है, उसका जीवन व्यर्थ है। हम एक छोटी-सी बोधकथा लें। एक विद्वान् किसी गाँव की तरफ जा रहा था । गाँव अभी दूर था, पर गाँव की सुन्दरता और रमणीयता दूर से ही उस ज्ञानी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003888
Book TitleJage So Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2012
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy