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________________ जागे सो महावीर १२८ विशेषण मिल जाएगा। आपको पता है 'लुच्चे' शब्द का उद्भव कैसे हुआ ? 'लुच्चा' शब्द लोचन से बना है। जब व्यक्ति अपने लोचन यानी आँखें किसी एक पर टिका देता है तो उसे लुच्चा कहा जाता है । आप यदि अपने कान किसी पर घंटों टिका दें तो कोई हर्ज नहीं है। आप यदि पूरे कान लगाकर मनोयोग से मुझे सुनते हैं तो मैं भी प्रभावित होने लगूँगा कि कितना धार्मिक और अच्छा व्यक्ति है । यदि आप लगातार मुझे घूरते रहें तो मैं भी यही समझँगा कि शायद कुछ गड़बड़ है। न तो ग्राही होते हैं और आँखें आक्रामक । | कान तीन प्रकार के होते हैं - पहले वे जो सुनते हैं कुछ और सोचते हैं कुछ और जैसे कोई व्यक्ति यहाँ सत्संग में बैठकर किसी फिल्म के बारे में सोच रहा हो । एक व्यक्ति सत्यनारायण की कथा में बैठकर किसी अन्य सत्यनारायण के बारे में सोच सकता है। ये कान वैसे ही हैं जैसे किसी दीवार पर गेंद फेंकी जाए जो दीवार से टकराने के बाद फिर जमीन पर उछल जाती है। ऐसे कान की कीमत दो की होती है। दूसरे प्रकार के कान वे होते हैं जो एक से सुनते हैं और दूसरे से निकाल देते हैं। ऐसे कानों की कीमत दो रुपये की होती है। तीसरे प्रकार के कान वे हैं जो दोनों भले ही बाहर की ओर खुलते हैं, पर जाते हैं हृदय की तरफ। ऐसे कान सत्श्रवण कर उसे हृदय में उतार लेते हैं। ऐसे कान की कीमत दो लाख से कम क्या होगी ! भगवान के सत्संग की पवित्र वाणी को सुनने का अधिकारी वही व्यक्ति है जो तीसरे प्रकार के कानों को धारण करता है। पहले प्रकार के कान को धारण करने वाले व्यक्ति के लिए महापुरुषों की वाणी अर्थहीन है। उसके जीवन में ये सूत्र कोई क्रान्ति नहीं ला पाएँगे। दूसरे प्रकार के कान वाले व्यक्ति के लिए भी ये शब्द दिमाग में उठने वाली किसी तरंग से अधिक नहीं हो सकते । धन्य तो वे व्यक्ति हैं जिनके कान से सुने हुए शब्द सीधे हृदय में उतरते हैं। ऐसे पुरुषों के लिए प्रभु की वाणी अमृततुल्य होती है । आप जिस जगह पर बैठे हैं, जानते हैं न उसे तीर्थ कहते हैं? आपके लिए कोई नाकोड़ा या नागेश्वर तीर्थ होता होगा, पर भगवान ने जिस तीर्थ की स्थापना की, वह उनसे भिन्न है । उन्होंने जिस तीर्थ को स्थापित किया उसमें चार मूर्तियाँ प्रतिष्ठित की गईं । आपने समवसरण में महावीर के चौमुख अर्थात् चारों दिशाओं में मुख देखा होगा। यह तो भगवान का अतिशय है, पर भगवान ने जिन चार मूर्तियों की Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003888
Book TitleJage So Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2012
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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