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सम्यक्श्रवण : श्रावक की भूमिका
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ठोकर खाकर सुधरता है, दूसरा व्यक्ति वह है जो दुबारा ठोकर खाता है और तीसरा व्यक्ति वह है जो दूसरों को ठोकर खाते देखने मात्र से ही सँभल जाता है। हाँ, कुछ लोग इस कद्र मूर्छा और माया में जकड़े रहते हैं कि वे ठोकर पर ठोकर खाते रहते हैं किन्तु कुछ भव्य प्राणी ऐसे भी होते हैं जो दूसरों के अनुभव को सुनने मात्र से ही सही राहों को चुन लेते हैं।
सुनना सदा सर्वांगीण होता है, जबकि देखना नहीं। भगवान का यह सूत्र संपूर्ण विश्व को बता दिया जाना चाहिए कि वे जहाँ हर जगह सम्यक् दर्शन को प्रथम स्थान पर रखते हैं, वहीं इस सूत्र में उन्होंने सम्यक् श्रवण को सर्वोपरि माना है।
जे. कृष्णमूर्ति ने जिसे राइट लिसनिंग कहा, महावीर ने उसे ही 'सम्यक् श्रवण' कहा। श्रवण ऐसा हो कि व्यक्ति अपना सम्पूर्ण मनोयोग सुनने में लगा दे। यदि व्यक्ति सुनने के साथ सोचने भी लग जाए तो उसका श्रवण सम्यक् न हो पाएगा, क्योंकि जब व्यक्ति किसी बिन्दु पर सोचता है तो उस सोच का पड़ाव कहाँ होगा, यह वह व्यक्ति भी शायद नहीं जानता है।
महावीर ने अपनी तरफ से त्रिरत्न - सम्यक् ज्ञान, दर्शन और चारित्र दिए। बुद्ध ने शील, समाधि और प्रज्ञा का मार्ग दिया। गीता ने ज्ञान, भक्ति और कर्मयोग की महत्ता बताई। मैं उपनिषद् का भी स्पर्श करना चाहूँगा। उपनिषद् ने तीन सूत्र दिए-श्रवण, मनन और निदिध्यासन। बहुत ही सुन्दर बात कही गई कि श्रवण के साथ एकान्त में उसका मनन किया जाए और मनन के साथ सदा उसकी स्मृति रखी जाए। स्वयं की सतत आत्मस्मृति का नाम ही निदिध्यासन है। सम्यक् श्रवण किसी पार लगाने वाली नौका के समान हो सकता है। वह एक मंत्र की तरह प्रभावी हो सकता है। उससे एक आभामण्डल का निर्माण हो सकता है। सुनना, देखने से अधिक प्रभावी होता है। सुनने और देखने में वैसे ही अन्तर होता है जैसे कि एक स्त्री और पुरुष में। एक स्त्री कोमल, सहनशील और सरल होती है। उसका अन्तिम हथियार आक्रमण होता है जबकि पुरुष का पहला हथियार ही आक्रमण होता है। वह सीधा ही बल-प्रयोग करता है, गाली-गलौच और हाथापाई करता है।
व्यक्ति के कान स्त्री के समान हैं और और आँखें पुरुष के समान। आँखें घूर कर देख सकती हैं, पर क्या कानों को आपने किसी को घूरते हुए देखा है ? यदि आप किसी को लगातार टकटकी से देखेंगे तो आपको जल्दी ही 'लुच्चे' का
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