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जागे सो महावीर
शरुआत स्वयं से हो।धर्म के लिए मणभर आचरण की बजाय कणभर का आचरण ज्यादा वजनदार होता है। हम सन्त-महापुरुषों के आभारी हैं जो श्रेष्ठ जीवन जीकर हमें वैसा जीवन जीने का प्रकाश प्रदान करते हैं। ऐसे लोगों के साथ उठनाबैठना-जीना ज्यादा लाभकर है क्योंकि वे स्वयं दीपक की तरह प्रकाशित हैं और
औरों को भी प्रकाश प्रदान करने की उदारता रखते हैं। हम साधु बनें, जीवन के साधु! जीवन में पलने वाली बुराइयों और अन्धविश्वासों का त्याग करें। यह त्याग सबके लिए स्वीकार्य है। सबके लिए अनुकरणीय है। संन्यास का अर्थ त्याग है और जीवन की बुराइयों और अन्धविश्वासों का त्याग करना सर्वश्रेष्ठ संन्यास है।
सार रूप में पाँच सूत्र ले लें१. व्यक्ति अपनी समता से सन्त होता है। २. सन्तों को देह की ममता से उपरत रहना चाहिए। ३. क्रोध, मान आदि कषायों से मुक्त रहना सन्तों का पहला धर्म है। ४. आत्म-स्वरूप में लीन रहना सन्त का चौथा कर्तव्य है।
५. अन्तिम सूत्र है सन्त को प्रबुद्ध और उपशान्त होकर विश्व में प्रेम और शान्ति के लिए सदैव प्रयत्नशील रहना चाहिए। ___ ये पाँचसूत्र किसी भी संत के लिए पंचामृत की तरह हैं। इन सूत्रों को आत्मसात् करके ही व्यक्ति सन्त-जीवन के गौरव को प्राप्त कर सकता है। ऐसा सन्त-जीवन स्वयं को भी धन्य करता है और संसार को भी। आत्म-कल्याण और लोककल्याण, दो कल्याण-पथों पर एक साथ चलने वाले पथिक का नाम ही सन्त है। सन्त संसार के लिए दीपशिखा है, प्रकाश-स्तम्भ है, मील का पत्थर है।
साधु ऐसा चाहिए, जैस सूप सुभाय।
सार-सार को गहि रहे, थोथा देइ उड़ाय॥ सार-सार का ग्रहण हो, असार कात्याग हो। साधुता का ग्रहण हो, असाधुता का त्याग हो। औरों के साथ भलाई के साथ पेश आना और अपने मानसिक विकार पर विजय प्राप्त करना यही है साधुता, यही है लक्ष्य और यही है पुण्य पथ।
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