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________________ संत स्वयं तीर्थ स्वरूप १२३ जाओ, यही श्रेयस्कर है। वहाँ के लोग किसी भी साधु को देखते ही उसके पीछे शिकारी कुत्ते छोड़ देते हैं और अन्य भी कई प्रकारों से तंग करते हैं। भगवान का उत्तर सुनकर आनन्द बोला, 'प्रभु ! अन्य क्षेत्रों में तो अन्य लोग भी जाने का साहस कर सकते हैं, पर मैं तो अंग-बंग और कलिंग देशों में ही जाना चाहता हूँ, क्योंकि मैं समझता हूँ कि आपके शान्ति, प्रेम और करुणा के मार्ग की वहाँ अधिक आवश्यकता है। भगवान ने कहा, 'तो जाने से पहले मेरे एक प्रश्न का उत्तर तो देते जाओ। यदि वहाँ के लोगों ने तुम्हें अपमानित और लांछित किया तो तुम क्या करोगे?' आनन्द बोला, 'प्रभु ! मैं यह सोचूँगा कि यहाँ के लोग बड़े ही भले हैं। केवल बुरे शब्द ही कहते हैं, किन्तु मारते तो नहीं हैं।' तब भगवान ने कहा, 'यदि वे तुम्हें थप्पड़ और मुक्के धर ही दें तो तुम्हारी क्या प्रतिक्रिया होगी?' आनन्द ने कहा, 'भन्ते ! मैं सोचूँगा कि ये लोग कितने भले हैं। हाथ से ही काम चलाते हैं, तलवार आदि का तो उपयोग नहीं करते।' भगवान ने कहा, 'यदि उन्होंने तलवार, भाले आदि से तुम्हारे हाथ-पाँव ही काट दिए तो?' आनन्द ने सहजता से जवाब दिया, 'प्रभु ! मैं सोचूँगा कि ये लोग अच्छे हैं, केवल मेरे अंग ही क्षत-विक्षत कर रहे हैं। कम-से-कम मेरे प्राण तो नहीं ले रहे।' बुद्ध बोले, 'तब मेरे अन्तिम प्रश्न का जवाब देते जाओ। यदि उन लोगों ने तुम्हें जान से मार ही डाला तो तुम्हारे मन में क्या भाव उठेंगे?' आनन्द ने कहा, 'प्रभु ! मुझे अन्तरगौरव होगा कि मैं आपके प्रेम और शान्ति के मार्ग का प्रचार-प्रसार करते हुए मृत्यु को प्राप्त हुआ। मुझे मेरा जन्म और मेरी मृत्यु दोनों ही सार्थक लगेंगे।' ___ भगवान बुद्ध बोले, 'वत्स ! तुम्हारी समता एवं सहनशीलता निश्चित रूप से अभिनन्दनीय है। तुम जैसे प्रबुद्ध और उपशान्त व्यक्ति ही अहिंसा और समता के मार्ग को प्रशस्त और प्रसारित कर सकते हैं। अहिंसा भी तुम जैसे व्यक्ति का वरण कर गौरवान्वित होती है। आज हम जिस तनाव, हिंसा, आतंक, युद्ध और भय के दौर से गुजर रहे हैं, जहाँ पर युद्ध आने वाले कल के लिए विश्व युद्ध का कारण है, वहाँ हर धार्मिक व्यक्ति प्रेम, करुणा, अहिंसा और विश्व-बन्धुत्व के मार्ग को आगे बढ़ाने के लिए हर क्षण प्रयत्नशील बने। हर सन्त, हर श्रमण का यह पुनीत कर्त्तव्य है कि वह विश्व को महावीर की अहिंसा, शान्ति और करुणा के मार्ग से पुन: परिचित कराए। तुम स्वयं जीवन के साधु बनो और अपने साधु-व्यवहार से सब को जीने का उदाहरण प्रदान करो। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003888
Book TitleJage So Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2012
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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