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जागे सो महावीर कषायों का उपशमन करो और दूसरी ओर से जीवन में ज्ञान की ज्योति प्रकाशित करो, ये दो तरफे प्रयास तुम्हारे जीवन में मुक्ति की आभा प्रदान करेंगे। इसी सन्दर्भ में अगला सूत्र है -
परिनिव्वुडे चरे, गाम गए नगरे व संजए।
संतिमग्गं च बूहए, समयं गोयम ! मा पमायए। वर्तमान युग के लिए यह महावीर का बहुत ही सन्देशवाहक सूत्र है। भगवान कहते हैं, 'प्रबुद्ध और उपशान्त होकर संयत भाव से ग्राम और नगर में विचरण करो। शान्ति का मार्ग बढ़ाओ। हे गौतम ! क्षणभर का भी प्रमाद मत करो। ___ भगवान ने धर्मविचारक और धर्म-प्रचारक के लिए दो आवश्यक बातें कहीं। पहली यह कि जो धर्म का प्रचार करे, वह प्रबुद्ध और ज्ञानी हो तथा शास्त्र के मर्म का ज्ञाता हो। क्योंकि जब वह भगवान के मार्ग का प्रचार करने के लिए गाँव-गाँव नगर-नगर जाएगा, तब सम्भव है कि लोग उससे विविध प्रश्न पूछे। एक शास्त्रवेत्ता, एक ज्ञानी पुरुष ही उनकी विविध शंकाओं का समाधान कर उन्हें शान्ति, मैत्री और प्रेम के मार्ग पर चलने के लिए सहमत कर सकता है।
भगवान ने किसी भी धर्मप्रचारक के लिए जो दूसरी आवश्यकता या दूसरा गुण कहा, वह यह है कि वह शान्त हो। विभिन्न ग्रामों और नगरों में विचरण करते हुए विभिन्न प्रकार के लोग उसे मिलेंगे। जितने प्रकार के लोग, उतने ही उनके दिमाग और उतनी ही बातें। हो सकता है कोई गृहस्थ विपरीत टीका-टिप्पणी भी कर दे। वह तो गृहस्थ है, पर हमने तो भगवान के अहिंसा, प्रेम, मैत्री और शान्ति के मार्ग को आगे बढ़ाने के लिए यह जीवन स्वीकार किया है। यदि सन्त भी शान्त न रह सका, तो उसके द्वारा धर्म की प्रभावना होगी कि धर्म की अवहेलना? वह धर्म का विकास करेगा या धर्म का ह्रास? एक गुस्सैल व्यक्ति जो स्वयं के चित्त को शान्त न कर सका, वह दूसरों को शान्ति का मार्ग कैसे बता सकेगा? विजय की प्रेरणा देने वाले को आत्म-विजेता होना पहली शर्त है। ___ भगवान बुद्ध और उनके प्रिय शिष्य आनन्द के जीवन से जुड़ी एक बड़ी प्यारी घटना लें। कहते हैं कि एक बार आनन्द ने भगवान बुद्ध को निवेदित किया, 'भन्ते ! मैं आपके शान्ति के मार्ग के प्रचार-प्रसार के लिए अंग-बंग और कलिंग देशों में जाना चाहता हूँ। कृपया आज्ञा प्रदान करें।' बुद्ध बोले, 'वत्स ! तुम अन्यत्र जहाँ भी जाना चाहो मेरी अनुमति है, पर अंग-बंग और कलिंग देशों में न
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