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संत स्वयं तीर्थ स्वरूप
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लेते हैं तो आप भी महामंत्र नवकार के पाँचवें पद पर आसीन हो जाते हैं और लोग आपके इस साधु-रूप को वन्दन करेंगे। पर सदैव यह याद रखें कि जो आप को अपने प्रणाम और वन्दन साधु समझकर अर्पित कर रहा है, उसके तो कर्मबन्धन कट गए, पर यदि एक साधु, साधु न होकर भी अपने को वन्दन करवाता है तो वह अपने भव-भ्रमण और कर्मबन्धन को और बढ़ाता है। ____ अगर कोई साधु नहीं है तो ईमानदारी से स्वीकार किया जाना चाहिए कि वह उन जीवन-मूल्यों को नहीं जी पा रहे। हाँ, हम ईमानदारी से यह स्वीकार करते हैं कि भगवान महावीर ने श्रमण जीवन के लिए जो चर्या निर्धारित की है अथवा जिस प्रकार के जीवन को निर्देशित किया, हम उसे नहीं जी पा रहे हैं। वह हर सन्त जो जीवन के प्रति ईमानदार होगा, यह स्वीकार करेगा कि आज के युग में महावीर द्वारा निर्धारित जीवनचर्या को जी पाने में असमर्थ है। भगवानद्वाराप्ररूपित श्रावकजीवन को जीने वाले न तो अब कोई श्रावक बचे और न ही शुद्ध श्रमण-धर्म को पालन करने वाले कोई साधु बचे हैं। न तो कोई साधु, साधु रहा है और न ही कोई श्रावक, श्रावक रहा है। उन ऊँचाइयों को छूने वाला, उन मापदण्डों को मापने वाला न तो कोई साधु बचा है और न ही कोई श्रावक।
अब जब कि शुद्ध श्रावक ही न बचे तो शुद्ध श्रमण कहाँ से आएँगे? श्रमण श्रावक का ही तो अगला चरण है। जैसा कोई श्रावक रहा, वैसा ही कोई श्रमण होगा। जब श्रावक नाम का अणुव्रती रह गया तो श्रमण भी तो नाम के ही महाव्रती होंगे। महाव्रती किसी दृष्टि से अणुव्रती भी हो गए और अणुव्रती तो कहीं के न रहे। वर्तमान में जो है, ठीक है। असुविधा तो तब होती है जब महावीर या उनके समय के साथ उसकी तुलना या विवेचना की जाती है। ___ भगवान ने कहा कि 'साधु वही है जो समता को जिए, कषायों से मुक्त हो
और आत्मध्यान में लीन रहे।' याद है न, बाहुबलि जो चौदह वर्ष तक साधना में लीन रहे, आहार भी नहीं लिया, यहाँ तक कि शरीर को हिलाया भी नहीं, फिर भी उनकी साधना फलीभूत नहीं हुई। कारण रहा – मान का मर्दन न हो सका, अहंकार का विसर्जन न हुआ। इस अहंकार-ग्रन्थि के चलते ही वह कैवल्य-लाभ से वंचित रहे। मान हो या क्रोध, कषाय तो व्यक्ति को बाँधे ही रखता है, जिसके कारण वह भाव-शुद्धि की तरफ बढ़ नहीं पाता।
कषायों पर विजय पाना हर व्यक्ति का पहला धर्म हो। तुम एक ओर से
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