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________________ १२० जागे सो महावीर देह-पोषण और देह के प्रति ममत्व भाव जितना कम होगा, विदेह भाव उतना ही प्रगाढ़ होगा। व्यक्ति जितना विदेह अवस्था में रहेगा, उतना ही वह मुक्ति के करीब होगा, उतना ही वह उच्च गुणस्थान पर आरूढ़ होगा। भगवान ने कहा कि 'भावलिंगी साधु वह है जो मान आदि कषायों से मुक्त हो।' साधु और मान दोनों एक दूसरे के विपरीत हैं। साधु स्वर्ग है तो मान नरक। साधु पुण्य है तो अभिमान शूल है। साधु मानसरोवर है तो अभिमान दलदल। साधु और मान ! बिलकुल विपरीत बात हुई। साधु अगर अभिमानी या घमण्डी है तो वह साधु के अर्थ को कहाँ सार्थक कर रहा है? ध्यान रखें, जहाँ अभिमान है, वहाँ क्रोध भी है। व्यक्ति का अभिमान जैसे ही बाधित होता है, क्रोध का कारण बन जाता है। क्रोधी साधु मरकर चंडकौशिक ही होता है, भद्रकौशिक कतई नहीं। जो सर्प-बिच्छु फुफकार रहे हैं, सम्भव हैं वे पहले साधु भी बने हों, पर अपने झूठे अभिमान और क्रोध के कारण वे मरकर सर्प-बिच्छू बने। मेरी समझसे साधुता की शुरुआत का पहला पगथिया (सोपान) ही अहंकार का त्याग है। जीवन में सरलता को स्वीकारना ही साधुता की प्राथमिक परीक्षा पास करना है। भगवान ने कहा कि 'सच्चा साधु वह है जो मान आदि कषायों से उपरत है।' साधुजनों के भी अपने-अपने अहंकार होते हैं। समाज को विभिन्न पंथों और सम्प्रदायों में बाँटने का साठ प्रतिशत श्रेय साधुओं को जाता है और चालीस प्रतिशत श्रावकों को। अपने-अपने गुमान, दुराग्रही अभिमान और अहंकार की लड़ाई के चलते ही साधुजन-समाज को, धर्म को, विभिन्न पन्थों और वर्गों में बाँट देते हैं। इसीलिए भगवान ने कहा कि 'साधु मान आदि कषायों से मुक्त हो।' साधु तो वह होता है जिसके लोभ, क्रोध, मान, माया, राग-द्वेष आदि क्षीण हो गए हों। साधु की कसौटी ही यही है कि विपरीत परिस्थितियों में भी वह संयम रखे और क्रोध न करे। यदि कोई गृहस्थ एक मास के उपवास के दौरान एक बार भी क्रोध करता है तो उसका प्रायश्चित भगवान ने दो मास-क्षमण फरमाया अर्थात् उसे दो माह के उपवास का दण्ड मिलता है और यदि एक साधु अपने साधुजीवन में एक क्षण के लिए भी क्रोध करता है तो साधुता से च्युत हो जाता है। क्रोध, लोभ, मान, माया आदि के साथ साधु का कहाँ सम्बन्ध? यदि इनके साथ उसका सम्बन्ध है तो फिर वह साधु कहाँ रहा? ___ णमो लोए सव्वसाहूणं' के पद पर आना बहुत सरल है, पर इस पद की गरिमा को, इस पद के कर्त्तव्य को निभाना बहुत ही कठिन है। अगर आप दीक्षा ले Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003888
Book TitleJage So Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2012
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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