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________________ संत स्वयं तीर्थ स्वरूप ११९ में दो तरह के लिंग प्रचलित हैं। पहला द्रव्य-लिंग और दूसराभाव-लिंग। मुक्ति में तो भाव-लिंग ही सहायक बनता है। द्रव्य-लिंग तो हमने पूर्व के किसी जन्म में भी धारण किया, पर वह भावलिंग जो हमारे जन्म-जन्मान्तर के कषायों को, हमारे अवसरों को नष्ट या शान्त कर सके, वह योग्यता हम नहीं पा सके। __ और जब तक चित्र में आश्रवों और कषायों का प्रवाह जारी रहेगा, तब तक हर साधु द्रव्य-लिंगी ही है। इसलिए महावीर ने भाव-लिंगी साधु के तीन गुण बताए। पहला यह कि वह देह आदि की ममता से रहित हो, दूसरा मान आदि कषायों से मुक्त हो और तीसरा आत्मज्ञानी हो। योगी आनन्दघन ने बड़ा ही सुन्दर पद गाया, 'आत्मज्ञानी श्रमण कहावे, बीजा तो द्रव्य लिंगीरे।' पहली बात भगवान ने यही कही कि साधु देह की ममता से रहित हो। वह देह में रहकर भी विदेह अवस्था को जिए। देह तो धर्म को साधने का साधन भर है। उसे साधन जितना ही महत्त्व दिया जाना चाहिए। देह तो क्षणभंगुर है। यह सड़न-गलनशील है। अच्छे से अच्छे पदार्थ को भी यह विष्ठा ही बनाती है। जब तक शरीर का संसर्ग न हो, तभी तक कोई वस्तु अपना स्वरूप लिये रहती है। शरीर का संसर्ग पाते ही वह विकृत होना शुरू हो जाती है। मल-मूत्र, पसीना, कफ-खून इसके बड़े विचित्र परिणाम हैं, इसलिए सन्त वह जो देह में रहे, पर देह का न रहे। जो देह में रहे, पर जिसका लक्ष्य देह के पार उठ चुका है। जो देह में रहने वाले प्राणतत्त्व पर जागृत हुआ, वह सन्त कहलाता है। आज अधिकांश लोग दैहिक जीवन ही जीते हैं, खाना-पीना और देह के पोषण में लगे रहना। भगवान महावीर ने तो साधु के लिए एक समय ही आहार लेने की बात कही थी। उन्होंने साधु के लिए कहा था-'एगे वत्थे, एगे पाये।' अर्थात् साधु एक वस्त्र और एक ही पात्र रखे। पर ज्यों-ज्यों साधु-जीवन के मूल्यों का ह्रास हुआ, त्यों-त्यों परिग्रह और देह-पोषण की प्रवृत्ति बढ़ती गयी। गजसुकुमाल मुनि जिनके सिर पर उनके ही श्वसुर सोमिल ब्राह्मण ने अंगारे की सिगड़ी बनाई, पर उन्होंने उसे भी मोक्ष की पगड़ी समझा और अपना विदेह-भाव बनाए रखा। वे समत्व-भाव में स्थित रहे। मेतार्य मुनि जिनके सिर पर स्वर्णकार ने चमड़े की मशक बाँध दी, तब भी अपार वेदना के उन क्षणों में भी वेसमताशील बने रहे। दमयंत मुनि, जिन्हें यादव कुमारों ने पत्थरों से पीटा, तब भी उन्होंने विदेह-भाव बरकरार रखा। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003888
Book TitleJage So Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2012
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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