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________________ ११८ जागे सो महावीर से। न जाने कहाँ से आ पड़े आधी रात को।' हम धैर्य रखते हुए फिर दरवाजा खटखटाएँगे। चौकीदार पुन: बड़बड़ाते हुए पूछेगा, 'कौन?' हम उतने ही धैर्य से जवाब देंगे, 'भाई तुम्हारे वे ही दो साधु।' हमारा जवाब सुनकर वह झुंझला उठेगा और हाथ में लाठी लिए हुए धड़धड़ाते हुए दरवाजा खोलेगा और हमें कीचड़ से लथपथ हुआ देख हम पर लाठी के दो वार करेगा, अपमानित करेगा। इसके बावजूद हमारे हृदय में उसके प्रति कोई शिकन के भाव न हों, उसमें भी प्रभु का रूप निहारते रहें, तो यही है, सच्ची और वास्तविक साधुता। साधुता का मापदण्ड है हर परिस्थिति में चित्त में रहने वाली समता, सरलता, सहजता, सौम्यता। महावीर की भाषा में यही साधुता का लक्षण है। इसीलिए महावीर ने कहा कि समता से कोई श्रमण होता है, ब्रह्मचर्य के पालन से कोई ब्राह्मण होता है, ज्ञान से कोई मुनि होता है और तपस्या करने से कोई तपस्वी होता है। जीवन में गुण होने से व्यक्ति गुणवान कहलाएगा। चोगे बदल लेने मात्र से कोई सन्त नहीं हो जाता। हृदय-परिवर्तन से ही जीवन-परिवर्तन सम्भावित है। आप अपनी साधुता को परखने के लिए अपने चरित्र को परखिये। चरित्र को परखने के लिए अपनी आदतों को परखिये क्योंकि आदतें क्रियाओं से बनती हैं। क्रियाओं को जांचने के लिए अपनी वाणी और शब्दों को जांचिये। शब्दों का निर्माण विचारों से होता है और विचार मन से निष्पन्न होते हैं। इसलिए एक मन ही बदल जाए तो विचार, वाणी, व्यवहार, चरित्र सभी बदल जाते हैं। आप मूल के प्रति सजग रहें। मन को साधु बनाएँ। भले ही आप घर में रहें, पर कमल की तरह निर्लिप्त गृहस्थ-सन्त बनें। समता आपके जीवन का निर्णय होना चाहिए। शान्ति और समता आपका व्यवहार और लक्ष्य होना चाहिए। इस सन्दर्भ में भगवान अगला सूत्र दे रहे हैं - देहादिसंगरहिओ, माणकसाएहिं सयलपरिचत्तो। अप्पा अप्पम्मि रओ, स भावलिंगी हवे साहू॥ भगवान कहते हैं, 'जो देह आदि की ममता से रहित है, मान आदि कषायों से पूरी तरह मुक्त है तथा जो अपनी आत्मा में ही लीन है, वही साधु भावलिंगी है।' पहले भगवान ने एक बात अपने सन्तजनों के समक्ष स्पष्ट कर दी थी कि हर व्यक्ति अपने चित्त में, अपने हृदय में यह बात उतार ले कि वेश-परिवर्तन या नामपरिवर्तन से कोई सन्त नहीं होता। इसी सन्दर्भ में भगवान का संकेत है कि दुनिया Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003888
Book TitleJage So Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2012
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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