SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 125
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ११६ जागे सो महावीर लिए, अपनी आत्मनिर्मलता और आत्मश्रेयस् के लिए संन्यस्त जीवन स्वीकार करते हैं। ऐसे लोगों का ही संन्यास की दहलीज पर अपने कदम बढ़ाना सार्थक होता है जिनके जीवन का आधार विशुद्ध आत्म-निर्मलता को साधना ही होता है। केवल सिर मुंडाने से कोई श्रमण नहीं होता, ओंकार के जाप से कोई ब्राह्मण नहीं होता, जंगल में रहने से कोई मुनि नहीं होता और कुश-चीवर धारण करने से कोई तपस्वी नहीं होता है तो फिर श्रमण-जीवन की कसौटी क्या है? समता अथवा सामायिक ही श्रमण-जीवन की कसौटी है जो लाभ और हानि में, निन्दा और प्रशंसा में, जीवन और मरण में, संयोग और वियोग में, हर हाल में अपने चित्त में समभाव बनाए रखती है। साधु वही है जिसके चित्त में समता है। जो सन्त क्रोध करते हैं, वे ऐसा करके अपनी साधुता खण्डित करते हैं। जो सन्त समाज को लड़वाने और तोड़ने का काम करते हैं, वे साधुता को नष्ट और भ्रष्ट करते हैं। जो सन्त अपना जीवन खाने-पीने में बिता देते हैं, वे साधुता के मार्ग से स्खलित हैं। सन्त तो वह है जिसके सामने खाने पर बैठने पर जो कुछ आहार मिलता है उसे समभाव से ग्रहण कर ले। खाने में भेदभाव हो सकता है। कभी किसी अमीर के घर से भी आहार मिलता है तो कभी किसी गरीब के घर से भी आहार मिलता है। कभी शहरों में भोजन मिलता है तो कभी गाँवों में भी किसी झोपड़ी से मोटी बाजरे की रोटी और छाछ भी मिलती है। महावीर जैसे लोगों को तो छ: महीने के बाद भी जो आहार मिला, वह था उड़द बाकुले का। अभी कम से कम हमें छाछ और बाजरे की रोटी तो मिल रही है ना। साधु वही है जो समता से आहार को ग्रहण करे। कभी ऐसा भी हो सकता है कि ऐसा कोई श्रावक मिले जो सन्त के जीवन के बारे में उसके समक्ष ही कोई कड़वी टिप्पणी कर दे, पर सन्त वही होता है जो ऐसी विपरीत परिस्थितियों में भी उद्विग्न नहीं होता और अपने चित्त में शान्ति व समता बनाए रखता है। कोई ऐसा न समझे कि सामायिक ले लेने से समता आ जाती है, वरन् चित्त में जब समता सधती है तब ही सामयिक होती है। जो आसन बिछाकर, चरवला लेकर एक घण्टा बिता देते हैं, उन लोगों के लिए ही भगवान ने कहा कि केवल करेमिभंते' के उच्चारण से सामायिक नहीं होती और सिर मुंडवाने से कोई श्रमण नहीं होता। सामायिक तो वह होती है जहाँ पर हर पल, हर हाल और हर परिस्थिति में व्यक्ति के चित्त में शान्ति, सौम्यता, सहजता, सजगता और सरलता बरकरार Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003888
Book TitleJage So Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2012
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy