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जागे सो महावीर होता है और अपने अवगुणों से ही कोई असाधु होता है। जिसमें गुण न हो वह तो घुन ही है। मूल्य है गुणों का, मूल्य है साधना की अन्तरदृष्टि का। कबीर ने व्यंग्य कसते हुए कहा, 'मन न रंगाए, जोगी रंगाए कपड़ा।' अरे ! बाहर के वस्त्रों को रंगाने भर से क्या लाभ? जब तक मन और जीवन साधुता के रंग में न रंगा तो तुम कपड़ा चाहे सफेद पहन लो, नीला पहन लो, काला पहन लो, नग्न रह जाओ या फिर जोगिया वस्त्र धारण कर लो, इससे कुछ फर्क नहीं पड़ने वाला। शेर तो शेर होता है और गधा गधा ही रहता है। गधा भले ही शेर की खाल ओढ़ ले, पर खाल
ओढ़ लेने मात्र से वह शेर नहीं बन जाता है। कोई गधा शेर तब ही बन सकता है जबकि उसके भीतर के गधेपन का त्याग हो जाए, भीतर में सिंहत्व का जन्म हो जाए। मूल्य है भीतर के परिवर्तन का, भीतर की साधुता का, जीवन की साधुता का। संस्कृत में एक चर्चित श्लोक है
शैले-शैले न माणिक्य, मौक्तिम् न गजे-गजे।
साधवो न हि सर्वत्र, चन्दनं न वने-वने ॥ हर पर्वत पर माणक नहीं होते, हर गज मुक्ता से सुशोभित नहीं होता, हर जगह साधु नहीं मिलते और हर वन में चन्दन नहीं मिलता।
जैसे पर्वत माणिक से और माणिक पर्वत से शोभा पाता है, जैसे हाथी मुक्ता से और मोती हाथी से शोभा पाता है, जैसे वन चन्दन के वृक्ष से और चन्दन का वृक्ष वन में ही शोभा पाता है, वैसे ही साधुधर्म से और धर्म साधुता से ही सुशोभित होता है। किन्हीं सात जन्मों का पुण्य उदय में आता है तब किसी ऐसे विरले सन्त के दर्शन होते हैं, जिनके दर्शन मात्र से दरिद्रता दूर हो जाती है, जिनके स्पर्श मात्र से चित्त के विकार और कषाय दूर हो जाते हैं, जिनके पास बैठने मात्र से चित्त में शान्ति अवतरित होने लगती है, जिनके सत्संग से चित्त को सुकून और दिशा मिलने लगती है, वे सन्त होते हैं। जिनकी वाणी स्वयं शास्त्र है, जिनकी दृष्टि स्वयं भगवत् स्वरूप है, वे सन्त धरती के तीर्थ हैं, मन्दिर हैं। ऐसे सन्तधरती के पापहर्ता हैं, पुण्यकर्ता हैं। ऐसे सन्तों की सच्चरित्रता की धुरी पर ही पृथ्वी टिकी है। जो सन्त न होते हुए भी स्वयं को सन्त कहते हैं, वे असन्त लोग क्षमा के पात्र हैं। ईश्वर उन्हें सद्बुद्धि दे।
दुनिया में चार तरह के श्रमण हुआ करते हैं। पहले तो वे जो सिंह की तरह संन्यास लेते हैं और सिंह की तरह ही पालन करते हैं। दूसरे वे जो सियार की तरह
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