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संत स्वयं तीर्थ स्वरूप
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गीता में बहुत सुन्दर बात कही गयी
'स्वयं हि तीर्थानि पुनन्ति संत:।' । सन्तों के जाने से तो तीर्थ स्वयं पवित्र हो जाया करते हैं। ऐसा नहीं है कि किसी गंगा में स्नान करने से सन्त पवित्र हो जाते हैं वरन् वे जहाँ स्नान कर लिया करते हैं, वह स्थान तीर्थ हो जाया करता है और हर पानी गंगा का निर्मल-पवित्र जल बन जाया करता है। सन्त के अगर पाँव धोकर पी लो तो वह गंगोदक या पंचामृत बन जाएगा और यदि सन्तता के प्रति श्रद्धान हुई तो गंगा में हजार डुबकियाँ लगा लो तो भी तुम्हारी स्थिति उस मछली के समान होगी जो जिन्दगी भर गंगा में रहती है फिर भी उस गंगा का प्रभाव उस पर नहीं पड़ता।
सन्त-महापुरुषों के पाँव तो तुम जिस कठौती में धो लो, वहाँ भी गंगा साकार हो जाएगी।'मन चंगा तो कठौती में गंगा'। सन्त गंगा के किनारे रहते हैं और गंगा सन्त-महापुरुषों के चरणों में। अगर तुम्हें लगे कि तुम्हारी ग्रह-गोचर दशा बिगड़ी हुई है तो कृपया किसी सन्त महापुरुष के चरणधोकर उस जल का घर में छिड़काव कर दो। वह चरण-जल गृह-शान्ति का आधार बन जाएगा। भाग्य और ग्रहगोचर को भी उसका साथ देना पड़ता है जो दिन-रात भजन-भाव में लगा हुआ है
और उसके चरण-जल को जिसके द्वारा श्रद्धापूर्वक स्वीकार किया जाता है। कौन है सन्त, कौन है ब्राह्मण, कौन है मुनि या तापस, आज के सूत्र में भगवान इसी बात पर प्रकाश डाल रहे हैं।
सूत्र है
न वि मुण्डिएण समणो न ओंकारेण बंभणो। न मुणि रण्णवासेणं, कुसचीरेण न तावसो॥ समयाए समणो होइ, बंभचरेण बंभणो।
नाणेण य मुणि होइ, तवेण होइ तावसो॥ भगवान कहते हैं केवल सिर मुंडाने से कोई श्रमण नहीं होता, ओम् का जप करने से ही कोई ब्राह्मण नहीं होता है। अरण्य में रहने से कोई मुनि नहीं होता और कुशचीवर धारण करने से कोई तपस्वी नहीं होता। वह समता से श्रमण होता है, ब्रह्मचर्य से ब्राह्मण होता है, ज्ञान से मुनि होता है और तप से तपस्वी होता है।
भगवान कहते हैं कि केवल सिर मुंडाने से कोई श्रमण नहीं होता। बाहर का वेश बदल देने मात्र से कोई साधु नहीं बन जाता। गुणों से ही कोई व्यक्ति साधु
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