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जागे सो महावीर इन्हें भी साथ लेते जाना।' सिकन्दर ने जब यह सुना तो उसे लगा कि उसकी तौहीन की गयी है। वह गुस्से में बोला, 'सन्त ! तुम जानते भी हो, अगर मैं चाहूँ तो तुम्हें एक क्षण में मृत्यु और चाहूँ तो एक क्षण में जीवनदान दे सकता हूँ।'
डायोजनीज हँसकर बोला, 'मैं जानता हूँ कि तुम चाहो तो मौत और चाहो तो जीवन दे सकते हो, पर मुझे सदैव इस बात का बोध बना रहता है कि एक दिन तो मृत्यु को अवश्य ही आना है। जब मृत्यु निश्चित है तो तुम्हारे चाहने या न चाहने का तो प्रश्न ही नहीं उठता।' कहते हैं सिकन्दर, उस सन्त की बातों से इस कदर प्रभावित हो उठा और कहने लगा, 'डायोजनीज ! मैं तुमसे बहुत प्रसन्न हूँ, तुम मझसे जो मांगना चाहो, मांगो। सन्त डायोजनीज बोलते हैं, 'तुम मुझे अपनी तरफ से कुछ देना ही चाहते हो तो बस इतना करो कि ग्रीस में अभी बहुत ठण्ड है
और मैं सर्दी से ठिठुर रहा हूँ। तुम जो मेरे और सूरज के बीच आड़े आ गए हो, हो सके तो तुम चार कदम पीछे खिसक जाओ ताकि सूरज की सीधी रोशनी मुझ तक आ सके।'
कहते हैं कि तब सिकन्दर ने अपने इतिहास में यह बात लिखवाई कि सिकन्दर यदि अपने जीवन में सिकन्दर नहीं होता तो वह डायोजनीज बनना पसन्द करता। जिसने जिन्दगी में पहली बार जाना कि सन्त की निर्भीकता, साहस और अलफक्कड़पन क्या होता है। ___ सन्तों की महिमा तो सन्त ही जानें। सन्तों का जीवन तो बड़ा विरल होता है। सन्त-जीवन की इस महिमा के चलते ही महावीर जैसे महापुरुषों ने सन्त-जीवन को मुक्ति का आधार-स्तम्भ माना है। अगर सन्त लोग किसी तीर्थ पर आते हों तो यह न समझें कि सन्त तीर्थ पर आने से पवित्र होते हैं, वरन् सन्तों के कदम जिसजिस क्षेत्र पर पड़ जाते हैं, वह स्थान स्वयं ही तीर्थरूप हो जाता है। ___सन्त तो स्वयं ही तीर्थ रूप होते हैं। एक तीर्थ तो वे होते हैं जो पत्थर के बनाए जाते हैं और एक तीर्थ वे होते हैं जो जीवन्त होते हैं। महावीर कभी किसी तीर्थ पर नहीं जाते थे, वरन् मिट्टी का वह हर कण जो महावीर का संस्पर्श पा लेता था, अपने आप में पूज्य हो जाया करता था, तीर्थ बन जाया करता था। सन्तों के किसी स्थान पर जाने से ही वह स्थान तीर्थ होता है। शत्रुजय-तीर्थ का हर कण सिद्धकण माना जाता है, इसलिए कि वहाँ का हर कण सन्तों की सिद्ध-आभा से अभिमण्डित है।
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