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संत स्वयं तीर्थ स्वरूप
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महावीर और बुद्ध जैसे लोग जिनके पास धन था, पत्नी थी, परिवार था और राजमहल थे, वे भी अन्तत: इन सबको छोड़ निकले। इसलिए कि ये चीजें उन्हें जीवन की सदाबहार शान्ति न दे पाई जिसकी उन्हें जरूरत थी। इस संसार में भोग चाहे कितना ही प्रभावी क्यों न रहा हो, पर वह त्याग के समक्ष तो सदैव बालक ही रहा है। त्याग की महिमा इतनी रही कि स्वयं एक सम्राट भी त्यागी के चरणों में अपना सिर झुका देता है, अपना मुकुट उनके चरणों में अर्पित कर देता है क्योंकि वह जानता है कि भोगों के आगे आत्म-समर्पण करना कितना सरल है, पर प्राप्त भोगों को त्यागना कितना कठिन है। भोग भोगना प्रवाह में बहना है, पर उस प्रवाह के किनारे आ खड़ा होना जीवन का भोग है। भोग और भोग के साधनों / निमित्तों का त्याग करना ही जीवन में संन्यास का कमल खिलाना है। ऐसे त्यागी ही सन्त कहलाते हैं।
ऐसा नहीं है कि महावीर या बुद्ध ही सन्त रहे हों, वरन् वह प्रत्येक व्यक्ति जिसने संसार के दु:खों और संसार की असारता को समझकर संन्यस्त जीवन की
ओर कदम बढ़ाए, वह सन्त ही है। जिसने भोग की पराकाष्ठा को जिया, जब वही उसकी असारता को समझ लेता है तो वही योग की पराकाष्ठा को छू जाया करता है। इसीलिए सिकन्दर ने कहा था कि वह यदि सिकन्दर नहीं होता तो डायोजनीज होना पसन्द करता। वह कोई सन्त, सीनिक या अवधूत होना पसन्द करता। सिकन्दर को जब जीवन और धन, सैन्य और साम्राज्य की असारता का बोध होता है तो वह अपनी ओर से त्याग का नया कदम उठाने का संकल्प भी ले लेता है। पर ऐसा कुछ हो उससे पूर्व ही उसका आयुष्य पूर्ण हो जाता है। वह मृत्यु से परास्त हो जाता है।
कहते हैं कि ग्रीस के महान् सन्त डायोजनीज किसी बाजार के किनारे अपनी झोंपड़ी के बाहर लेटे हुए थे। जब सिकन्दर को पता चलता है कि ग्रीस में कोई अवधूत या अवघड़ सन्त रहता है तो वह उनसे मिलने पहुंचता है। वह डायोजनीज से बोलता है कि तुम मुझे पहचानते हो कि मैं कौन हूँ? मैं विश्व-विजेता सिकन्दर हूँ। इस सम्पूर्ण धरा पर मेरा ही शासन चलता है। मेरे कहने से ही पत्ता हिल सकता है और मैं कहूँ तो पत्ता भी स्थिर हो जाता है। सन्त मुस्कराए और बोले, 'मैं डायोजनीज हूँ, तुम्हारा सम्पूर्ण पृथ्वी पर शासन चलता है। एक तो काम मेरा भी करो। ये पाँच-दस मक्खियाँ मुझे बड़ी देर से परेशान कर रही हैं। तुम जाओ तो
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