________________
संत स्वयं तीर्थ स्वरुप
मेरे प्रिय आत्मन्! __ भगवान ने पवित्र जीवन जीने के लिए दो मार्ग प्रदान किए हैं। उनमें पहला मार्ग है श्रावक-जीवन का और दूसरा मार्ग है श्रमण-जीवन का। पहला मार्ग संसार में रहते हुए भी संसार से मुक्त होने की कला प्रदान करता है। वहीं दूसरा मार्ग संन्यास की वह रोशनी प्रदीप्त करता है जिससे मनुष्य अपनी शाश्वत स्वस्ति और मुक्ति को साधता है।
कल हमने भगवान के श्रावक-जीवन के सन्दर्भ में चर्चा की थी। आज हम मनन करेंगे उस फूल को खिलाने के बारे में, उस दीप को जलाने के बारे में, उस सूरज को उगाने के बारे में जिसे भगवान ने सन्त या श्रमण-जीवन की संज्ञा दी है।
सन्त होना अपने आप में ही महान सौभाग्य की बात है। सात जन्म के पुण्य जब उदय में आते हैं तब किसी एक जन्म में संन्यस्त जीवन का फूल खिलता है। संन्यस्त जीवन की महत्ता का अन्दाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि जहाँ संसार में धन, जमीन, जायदाद और अन्य वैभव-सम्पत्तियों का महत्त्व है, वहीं ऐसे व्यक्ति जिन्होंने संसार का समस्त वैभव प्राप्त किया, अन्तत: उनको भी मन की शान्ति प्राप्त करने के लिए, जीवन के सत्य को उजागर करने के लिए और अपनी स्वर्णिम मुक्ति को आत्मसात् करने के लिए संसार और उसके वैभव को ठोकर मारकर संन्यस्त जीवन को अंगीकार करना पड़ा।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org