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________________ जागे सो महावीर भी छोड़ना पड़ेगा। बेड़ी चाहे लोहे की हो या सोने की, बंधन तो दोनों ही हैं । यदि आप एक रस्सी पर सोने-चाँदी, हीरे पन्ने का काम करवाकर उसे गले में बांधकर खींचते हैं या एक चुन्नी का फंदा बनाकर गले में लटकाते हैं तो परिणाम तो दोनों का एक ही होगा। दोनों ही व्यक्ति के लिए पाश हैं, बन्धन और फाँसी हैं। १०८ - धूप में खड़ा है, उसे यही कहा जाएगा कि तुम धूप से छाया में आ जाओ । जो पाप में प्रवृत्त है उनके लिए पुण्य का मार्ग है, पर जो पुण्य के मार्ग पर आ चुके हैं उनके लिए तो निर्वाण ही मार्ग है । इसीलिए महावीर कहते हैं कि मैंने ही तुम्हें पाप में प्रवृत्त देखकर पुण्य के मार्ग पर आने का संकेत दिया था, पर अब जब तुम्हारे कदम पुण्य की तरफ बढ़ ही चुके हैं तो मैं ही कहता हूँ कि पुण्य की इच्छा करना भी संसार की इच्छा करना है। पुण्य सुगति का हेतु है और पुण्य के क्षय से ही निर्वाण मिल सकता है । यदि आप मुक्ति चाहते हैं तो हर कार्य निर्वाण - प्राप्ति की इच्छा से ही करें अन्यथा तुम्हारा धर्म भी तुम्हें संसार में ही धकेलेगा । द्रौपदी ने चारित्र ग्रहण किया और एक बार किसी गणिका को पाँच पुरुषों के साथ आमोद-प्रमोद करते हुए देखा तो उसने भी मन-ही-मन यह भाव बना लिया कि मुझे भी मेरी साधना के प्रभाव से अगले जन्म में पाँच पुरुष या पाँच पति मिलें । जो साधना मोक्ष का हेतु बन सकती थी, वही संसार का हेतु बन गई । संसार और सांसारिक सम्बन्धों से कैसा राग ? अतीत में जिन भोगों का उपभोग किया, जिन सम्बन्धों की परम्परा को बनाए रखा, क्या यहाँ भी हम इन्हीं का सिंचन और पोषण करते रहेंगे ? अगर आप दान भी देते है तो अपरिग्रह के भाव से दान दें। दान किसी पर अहसान जताने के उद्देश्य से या प्रचार के उद्देश्य से नहीं दिया जाए । दान देते समय यह भाव हो कि मेरे पास आवश्यकता से अधिक है इसलिए दे रहा हूँ । हर कार्य कर्तव्य भाव से किया जाए। हम अट्ठाई करके माला आदि पहन लेते हैं, अपना सम्मान कराते हैं, पर जैसे कीर्तिदान व्यर्थ होता है वैसे ही कीर्तितप भी व्यर्थ होता है। हर कार्य के प्रति आत्मशुद्धि की भावना हो। आपके पास सौ रुपये हैं और उनमें से भले ही आप एक रुपये का दान करें, पर उसे त्याग की भावना से करें । दान करते समय मन में भाव हो कि मेरे पास अधिक है, इसलिए मैं बाँट रहा हूँ। जैसे साँप केंचुली उतारकर फेंकता है वैसे ही श्रावक या साधु त्याग करें। शुभ और अशुभ दोनों का त्याग हो, शुद्ध की ओर Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003888
Book TitleJage So Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2012
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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