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मार्ग तथा मार्गफल
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सूझी। उन्होंने एक तिनका उठाया और संत के कान में डालने लगे, पर सन्त पूर्ववत् शान्त बैठे रहे। अब वे नदी का पानी उछाल कर संत के मुँह पर फेंकने लगे, पर सन्त अब भी शान्त थे। एक युवक को क्रोध आया कि देखता हूँ यह कब तक शांत रहेगा? उसने सन्त को उठाया और उन्हें उलटा कर नदी में लटकाने लगा। सन्त तो अभी भी शान्त थे, पर उनका एक भक्त यक्षदेव यह देख न सका। वह तुरंत प्रकट हो गया। उसने संत को आराम से बिठाया और बोला, 'महाराज, आप आज्ञा दें तो मैं इन युवकों को पानी में डुबो दूं।' संत बोले, ‘इन्हें पानी में डूबोने से क्या होगा? यदि तुम कुछ कर ही सकते हो तो इन युवकों का अन्तरमन बदल दो ताकि ये फिर से किसी और को परेशान न करें।' ___ महावीर हर व्यक्ति का अन्तरमन बदलना चाहते हैं। अन्तरमन न बदला तो कुछ नहीं बदला । मुक्ति शरीर की, कपड़ो की या अन्य किसी बाहरी वस्तु की नही होने वाली है। मुक्ति तो चेतना की होने वाली है। जिसकी मुक्ति होने वाली है, उसका बदलना ही हमारे लिए आवश्यक है। दर्शन,ज्ञान,चारित्र ही मोक्ष का मार्ग है। साधकों को इनका आचरण करना चाहिए। यदि ये स्वाश्रित हैं तो इससे मोक्ष मिलता है और यदि ये पराश्रित हैं तो बंध का कारण ही बनते हैं।
भगवान ने यहाँ पर व्यक्ति को सावधान कर दिया है कि यदि दर्शन,ज्ञान और चारित्र का आचमन आत्म-भाव से होगा तो ये मोक्ष के कारण बनेंगे अन्यथा ये भी बंधन केही हेत होंगे। शास्त्राध्ययन करने के बाद यदि अहंकार आ जाए तो वह बंधन का कारण बन जाता है और यदि आत्मभाव का लक्ष्य रखकर शास्त्रों का अध्ययन किया जाए तो वह मोक्ष का कारण होता है। लक्ष्य ही मुख्य है। अन्तिम सूत्र है -
पुण्णं पि जो समिच्छदि, संसारो तेण ईहिदो होदि।
पुण्णं सुगईहेर्दू, पुण्णं खएणेव णिव्वाणं॥ भगवान कहते हैं, 'जो पुण्य की इच्छा करता है, वह संसार की ही इच्छा करता है। पुण्य सुगति का हेतु अवश्य है, पर निर्वाण तो पुण्य के क्षय से ही होता है।'
जहाँ हर प्राणी पुण्य संचित करना ही धर्म का उद्देश्य समझता है, वहीं महावीर कहते हैं कि पुण्य की इच्छा करना भी संसार की ही इच्छा करना है। पुण्य के क्षय से ही मुक्ति मिलती है। पुण्य तो सुगति का हेतु है। जैसे पाप बाँधता है, वैसे ही पुण्य भी बाँधता ही है। अशुभ से शुभ अच्छा है, पर शुद्ध के लिए शुभ को
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