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________________ जागे सो महावीर दर्शन से शुरुआत हो। ज्ञान हमारी हथेली पर दीप के समान हो और चारित्र चरणों में समा जाए। दर्शन की भट्ठी में ज्ञान की रोटी सेको और चारित्र के द्वारा उसे पचाओ। ये तीनों अन्योन्याश्रित हैं। ऐसा नहीं है कि किसी एक का महत्त्व अधिक है। तीनों का ही समान मूल्य है। शुरुआत दर्शन से हो। व्यक्ति का बोध जगे। बच्चे से कहो कि आग में हाथ मत डालना, जल जाएगा, लेकिन वह नहीं मानेगा। जब उसका हाथ एक दिन जल जाएगा तब वह जिन्दगी भर आग में हाथ नहीं डालेगा। ऐसे ही बच्चे से कहो कि बिजली के बटन को हाथ मत लगाना। वह तुम्हारी बात पर ध्यान नहीं देगा। लेकिन जिस दिन भी करंट का एक छोटा-सा झटका लग गया, वह खुद ही बटन के पास नहीं जाएगा। तुम्हें अभी तक ऐसा कोई झटका नहीं लगा है, इसीलिए संसार के रंगमंच में उलझे हो। जिस दिन ऐसा कोई झटका लगेगा तो स्वत: ही जीवन में सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चारित्र आ जाएगा। सम्यक् दर्शन तो बस, झटके का काम करता है। जीवन में बोध जागे। हम क्रोध करें तो भी बोधपूर्वक करें। पति से मिलो, पत्नी से मिलो, बच्चे का माथा चूमो या गले लगाओ, हर कार्य बोध और होशपूर्वक हो। जब जीवन में बोध का दीपक जल जाता है तो व्यक्ति का ज्ञान और चारित्र भी सम्यक बन जाता है। हो सकता है कि उस व्यक्ति का चारित्र, किताब में लिखी बातों से मेल ना खाए, पर सम्यक्त्व में कोई कमी नहीं आती। __ भीतर की आँख खुलने का नाम ही समकित है। कान में मन्त्र फूंकने से समकित नहीं मिल जाता। लोग कहते हैं कि हमने, हमारे पूर्वजों ने उनसे समकित लिया है। अरे ! समकित क्या लेने-देने की चीज है ? समकित तो चेतना का स्वभाव है। किसी के द्वारा समकित देने से समकित मिल जाए तो फिर धर्म-कर्म का कोई अर्थ नहीं रहेगा और न श्रद्धा,श्रद्धान और सम्यक् दृष्टि का कोई महत्त्व रहेगा। सम्यक्त्व तो आत्मा का स्वभाव है, आत्मा की सुवास है। मूल बात है व्यक्ति की अन्तरदृष्टि और अन्तरमन बदले। __ गधा शेर की खाल ओढ़ ले तो वह शेर नही बन जाता। शेर तो वह है जिसमें सिंहत्व हो और यदि सिंहत्व है तो तुम गधे की खाल में भी शेर होओगे। मैं मानता हूँ वंश का मूल्य है, नाम का मूल्य है, वातावरण का भी मूल्य है, पर सबसे अधिक मूल्य है व्यक्ति की अन्तरदृष्टि, अन्तरमन और अन्तरबोध का। ' कहते हैं, एक बार एक संत किसी नाव पर सवार होकर जा रहे थे। उस नाव पर कुछ मनचले युवक भी बैठे थे। उन्होंने संत को देखा तो मजाक करने की Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003888
Book TitleJage So Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2012
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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