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________________ मार्ग तथा मार्गफल अभी भी क्रोध आता है ? ऐसे तो हर व्यक्ति दूसरे को कह देगा कि गुस्सा नही करना चाहिए, गुस्सा करना बहुत बड़ा पाप है। विपरीत परिस्थिति न मिले तो हर कोई सौम्य,मधुर और शांत बना रहता है, पर वातावरण बिगड़ जाए तब पता लगता है कि व्यक्ति सामायिक को कितना जी सका? गाली देने का मौका आए और व्यक्ति चुप रहे तो यह व्यक्ति का मुँहपत्ती बाँधने का विवेक है। ऐसे तो शांत स्थिति में व्यक्ति वैसे ही आरंभ-समारंभ (हिंसाप्रतिहिंसा) से मुक्त रहता है। मुँहपत्ती का विवेक तो लड़ाई-झगड़े के समय ही होता है। जो गाली-गलौच नहीं करते, वे मुँहपत्ती बाँधे या न बाँधे, कोई फर्क नहीं पड़ता। जोक्रोध नहीं करते उनकी तो हर क्षण सामायिकही हो रही है। यह कौन-सी समझदारी हुई कि पहले तो कपड़े को स्याही से रंगो, फिर उसे धोओ। पहले ही विवेक रखो कि कपड़ास्याही सेसने ही नहीं। यह क्या कि पहले तोपापऔर फिर उसका प्रतिक्रमण! तुम अपने जीवन में इतनी सजगता रखो कि एक क्षण भी तुमसे पाप न होने पाए। महत्त्व पाप करके उसके प्रायश्चित का नहीं, वरन् महत्त्व है सजगता का, क्योंकि प्रतिक्रमण उतना कारगर नही हो पाएगा, जितनी तुम्हारी सजगता तुम्हें पापों से बचा सकती है। सामायिककरते-करते तुम्हारे आसन फट गए, पर तुम्हारे मन में प्रसन्नता, सौम्यता और मधुरता न आ पाई। अब हम शुरुआत करें मूल मार्ग की सामायिक से। हम यह संकल्प लें कि मैं हर हाल में क्रोध नहीं करूँगा, लाभ-हानि में समभाव रखने का प्रयत्न करूँगा। अगर यह आसन-चरवले वाली सामायिक होती तो पूणिया, श्रेणिक को एक तो क्या दस-बीस सामायिक यूँ ही दे देता। पर पूणिया जानता था कि महावीर ने जिस सामायिक की बात कही है वह तो स्वभावजनित सामायिक है और ऐसी सामायिक यदि किसी को दी जा सकती तो श्रेणिक की नरक अवश्य कट जाती। एक दिन के लिए ही हम इस स्वभावजन्य सामायिक की कसौटी पर स्वयं को कस कर देखें। केवल आज के लिए ही सही किन्तु यह निश्चय अवश्य कर लें कि कैसी भी परिस्थिति हो, पर मैं आज क्रोध नहीं करूँगा। आप जब रात को सोने के लिए जाएँगे तो अनुभव करेंगे कि आपके चित्त में एक शान्ति है, प्रसन्नता और मधुरता है। अगर आपको ऐसा नहीं लगे तो कल से मत करना। तुम गुस्सा करके भी देख लो, पाओगे कि तुमने सातवीं नरक जैसी यातना और बेचैनी का अनुभव किया है। अब निर्णय आपके हाथ में है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003888
Book TitleJage So Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2012
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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