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जागे सो महावीर
धर्म तो उसका होता है जो बोध को पा लेता है। बोध उम्र की दहलीज से जुड़ा नहीं होता । बोध तो जब प्राप्त हो जाए, तब ही चमत्कार घटित हो जाता है। वह तो किसी बालक ध्रुव, नचिकेता, प्रह्लाद या चन्द्रप्रभ को भी हो सकता है। अगर बोध है तो आठ वर्ष की उम्र में भी व्यक्ति अतिमुक्त हो सकता है, किन्तु अगर बोध प्राप्त न हो तो अस्सी वर्ष की उम्र में संन्यस्त होकर भी व्यक्ति भटकता रहता है।
हम शुरुआत करें दर्शन से। मैंने महावीर और बुद्ध के जीवन से, उनकी साधना से कुछ सीखा है तो यही कि जीवन में बोध का उदय हो। मैंने अपने संन्यस्त जीवन में यदि पहली शुरुआत की तो वह था ज्ञानमूलक जीवन। मैंने यह जाना कि जब तक व्यक्ति के जीवन में सम्यक् दृष्टि के कपाट नहीं खुलेंगे और सम्यक् ज्ञान की खिड़कियाँ बंद ही रहेंगी, तब तक जीवन में सम्यक् चारित्र नहीं सध पाएगा।
हो सकता है कि तब व्यवहार-चारित्र सध जाए, जहाँ दरवाजे के बाहर तो कोई साधु नजर आए और दरवाजे के भीतर कोई कबाड़ची। मैंने अपनी साधनादृष्टि
और शास्त्रीय ज्ञान के आधार पर जिस बात को सर्वाधिक प्राथमिकता दी, वह थी जीवन में बोध की आँख खुले। मुझे संसार की किसी भी वस्तु से नफरत नहीं है। मैं ऐसा संत हूँ जो संसार की निंदा नहीं करता। तत्त्वत: जब दिख जाए कि क्या सत्य है और क्या असत्य है तो फिर सत्य की प्रशंसा को छोड़कर असत्य की निन्दा कौन करेगा?
तुम सत्य की तरफ कदम बढ़ाओगे तो असत्य स्वत: ही दूर छिटक जाएगा। प्रकाश की तरफ आगे बढ़ोगे तो अन्धकार स्वयं ही विलीन हो जाएगा। अन्तरमन बदला तो बाहर का आचरण स्वत: ही बदल जाएगा और यदिअन्तरमन न बदला तो बाहर से हजार बार बदल कर भी तुम वही रह जाओगे। हम ईमानदारी से निरीक्षण करें अपने मन का। पर जीवन के प्रति ईमानदार हुए बिना जीवन का मूल्य नहीं पाया जा सकता। ___ आप स्वयं को टटोलें कि आपने अब तक कितनी सामायिक कर ली होंगी, कितनी मालाएँ फेर ली होंगी और कितनी बार मंदिर में जाकर पूजाएँ कर ली होंगी? जो संत-वेश में हैं, वे भी अपना निरीक्षण कर लें कि वे कितने प्रतिक्रमण, प्रतिलेखन और अन्य क्रियाएँ कर चुके हैं ? मैं पूछना चाहूँगा कि क्या आप को
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