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मार्ग तथा मार्गफल
सही देखो, सही-सही जानो, और सही-सही करो - यही है त्रिविध साधना-पथ अथवा त्रिविध धर्म-पथ |
महावीर ने अपने पथ की शुरुआत सम्यक् दर्शन से की, मगर आज हमने महावीर के मार्ग को ही उलट-पुलट कर दिया। हमने चारित्र को प्रथम स्थान पर ला खड़ा किया । आज किसी भी संत के पास चले जाओ, वह यही प्रेरणा देगा कि संसार छोड़ दो, दीक्षा स्वीकार कर लो । एक नारा भी तो चलन में है 'एक धक्का और दो, संसार को छोड़ दो।' आज सब लोग दूसरों की सीख पर ही चल रहे हैं। स्वयं की अन्तर - प्रेरणा से कितने लोग दीक्षित हो रहे हैं, कितने वैराग्यवासित होते हैं ? जितने भी साधु-साध्वी हैं, उनमें से नब्बे फीसदी दूसरों के चढ़ाये दीक्षित हुए हैं। लोग आते हैं मेरे पास चेले बनने के लिए। मैं उन्हें ऐसी जगह भेज देता हूँ जहाँ चेलों की आवश्यकता है।
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मैं जब खुद ही पूर्ण गुरु न बन पाया, उस गुरु-तत्त्व को स्वयं में प्रतिष्ठित न कर पाया तो चेला कैसे बनाऊँ ? जब-जब अन्तर में गहरा उतरता हूँ तो लगता है कि अभी तो मुझमें शिष्यत्व भी बाकी है। मैं ईश्वर की उस अनुकंपा के प्रति आभारी हूँ जो मुझे सदैव शिष्य बनाए रखे और कभी गुरु बन कर चेला बनाने की तृष्णा पैदा न करे । जैसे गृहस्थ को शादी होते ही बेटे की भूख होती है, वैसे ही साधु-साध्वियों को चेले-चेलियों की भूख होती है।
चारित्र का मार्ग तो उनके लिए है जिन्होंने संसार को अच्छी तरह देखजानकर उसकी नि:सारता का अनुभव कर लिया है। जब ऐसा कोई व्यक्ति जिसने संसार को, उसके भोगों को अच्छी तरह से असार जान लिया है, वह जब साधना के पथ पर आता है तो वह शत-प्रतिशत प्रामाणिकता से अपना जीवन जी सकेगा ।
यह संभव है कि एक बच्चे का खटाई खाने का मन भी हो जाए, पर आपकी उम्र तो साठ-सत्तर वर्ष की हो गई है। आपको तो खटाई - मिठाई सबसे तृप्ति हो जानी चाहिए। आपने तो इतनी लंबी उम्र में इन सब भोगों को भोग कर उनकी व्यर्थता अनुभव कर ली है। अब, उम्र तो आपकी है संन्यास लेने की, लेकिन जब आप इस उम्र में भी संन्यास के मार्ग पर नहीं आते हैं, तो हम बच्चों को ही आगे आना पड़ता है। यह शिक्षा, यह संदेश देने के लिए कि बुजुर्गों तुम पड़े रहो इसी दलदल में, लेकिन तुम्हें अस्सी वर्ष की उम्र में भी संसार में रचे-बसे देखकर, संसार और भोगों के प्रति आसक्त देखकर हम जरूर इस दलदल से निकलने के लिए प्रतिबद्ध हैं ।
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