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________________ १०२ जागे सो महावीर जब तक मूल मार्ग समझ न आए, अंतर्हृदय में इस मार्ग के प्रति रुचि और अभीप्सा न जगे तो व्यक्ति हजारों जन्म लेकर भी इसी कदर बाह्य क्रियाओं में भटकता रहेगा। हो सकता है कि हम महावीर के समय में भी रहे हों और हमने श्रमण-मार्ग भी स्वीकार किया हो, लेकिन जैसे तब जीवन निष्फल गया वैसे ही आज भी हो रहा है। 'साँचा मारग न मिल पाया' इसलिए हम भटक रहे हैं सँकड़ी पगडंडियों पर। जीवन में साधना की शुरुआत ही मूल मार्ग को जानने के बाद होती है और वह मार्ग है सम्यक् ज्ञान, सम्यक् दर्शन और सम्यक् चारित्र का। हमें ऊपर-ऊपर से देखने पर विविध धर्मों के मार्गों में भेद नजर आता है, पर मूल तो सबका एक ही है। बुद्ध ने आष्टांगिक आर्य मार्ग दिया। उन्होंने तीन चरणों की बजाय आठ चरण दिए – सम्यक् दृष्टि, सम्यक् वाणी, सम्यक् संकल्प, सम्यक् आजीविका, सम्यक् कर्मान्त, सम्यक् व्यायाम, सम्यक् स्मृति, सम्यक् ध्यान और सम्यक् समाधि। ___गीता ने अपनी ओर से त्रिविध मार्ग- भक्तियोग, कर्मयोग और ज्ञानयोग का निरूपण किया। महावीर ने भी त्रिविध मार्ग की प्ररूपणा की-सम्यक् दर्शन, ज्ञान और चारित्र । जब बुद्ध से उनके शिष्यों ने पूछा कि आपके इस आष्टांगिक मार्ग को सार रूप में कैसे व्यक्त किया जाए तो बुद्ध ने कहा, 'इस मार्ग का सार तीन शब्दों में अर्थात 'प्रज्ञा', 'शील' और 'समाधि' में सन्निहित है। ___ उपनिषदों ने भी अपनी ओर से त्रिविध मार्ग दिखाया - 'श्रवण', 'मनन' और 'निदिध्यासन' । श्रवण यानी सुनना। सत्य के बारे में, तत्त्व के बारे में सुनना। मनन यानी सुने हुए का चिंतन करना। निदिध्यासन यानी उसे आत्मसात् करना, आचरण करना। ये सभी मार्ग पूर्व के दर्शनों के हैं। पाश्चात्य दर्शन ने त्रिविध साधनापथ दिखाया है। पहला पथ है. 'एक्सेप्ट द सेल्फ' अर्थात् आत्म-स्वीकृति; दूसरानो द सेल्फ अर्थात् आत्म-ज्ञान और तीसरा-बी द सेल्फ अर्थात् आत्म-रमण। ___हम महावीर के मूल मार्ग को समझने का प्रयास करें जिसमें सभी मार्ग समाए हुए हैं। महावीर ने सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चारित्र की बात कही। सम्यक् दर्शन का अर्थ है हर चीज को भली भाँति तत्त्वत: देखना। सम्यक् ज्ञान का अर्थ है हर वस्तु को भली भाँति जानना और सम्यक् चारित्र का अर्थ हैदेखे और जाने गए को जीना, उस पर आचरण करना। इसे यों समझें कि सही Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003888
Book TitleJage So Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2012
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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