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________________ मार्ग तथा मार्गफल १०१ कोई रोग का उपचार या फिर अन्य कोई सांसारिक भोगों की कामना। भगवान को तो हमने बिल्कुल ‘सड़कछाप' ही बना दिया है। एक ऐसा व्यक्ति जिसने संसार के भोगों को तृणवत् छोड़कर वीतरागता की प्रखर साधना की और परम स्थिति की पराकाष्ठा को छू लिया, उससे हम कहते हैं कि मेरा हीरा खो गया है। यदि वह मिल गया तो मैं तुम्हें एक सौ एक रुपये का प्रसाद चढ़ाऊँगा। जैसे कि भगवान हीरा खोजने के लिए झाडू लेकर तुम्हारे घर आएँगे। ___ महावीर का मार्ग विशुद्ध वैज्ञानिक मार्ग है। जिस तरह विज्ञान दावा करता है कि सौ डिग्री सेल्सियस पर पानी को गर्म किया जाए तो वह भाप बनने लगता है, उसी प्रकार महावीर कहते हैं कि मार्ग पर चलो तो मार्गफल अवश्य मिलेगा। जब तक जीवन में ऐसी वैज्ञानिक व्यवस्थाएँ नहीं होंगी तब तक न तो मार्गफल मिलेगा और न ही पानी गर्म होकर भाप बनेगा। जिस प्रकार विज्ञान में 'कारण और कार्य' का संबंध है, उसी प्रकार महावीर के धर्म में 'मार्ग और मार्गफल' का संबंध है। प्रश्न है मार्ग क्या है ? भगवान ने कहा कि मार्ग उपाय है और मार्गफल निर्वाण है। सूत्र है दंसणणाण चरित्ताणि, मोक्खमग्गो त्ति सेविदव्वाणि। साधुहि इदं भणिदं, तेहिं दु बंधो व मोक्खो वा॥ भगवान कहते हैं : दर्शन, ज्ञान और चारित्र मोक्ष का मार्ग है।' साधु-पुरुषों को इनका आचरण करना चाहिए। यदि वे स्वाश्रित हैं तो इनसे मोक्ष होता है और पराश्रित होने से बंध होता है। हर उस व्यक्ति को मूल मार्ग को समझना चाहिए और उस मार्ग को जीने का प्रयास करना चाहिए जो अपने जीवन में महावीरत्व का फूल खिलाने के लिए कृतसंकल्प है। महावीर ने उन बातों का जिक्र कभी नहीं किया जिन्हें आज हमने धर्म के नाम पर अपना रखा है। हम विचार करें कि आज धर्म का जो स्वरूप है, क्या महावीर ने उसी मार्ग की प्ररूपणा की थी? क्या महावीर ने एक श्रावक का यही रूप बताया था कि वह सुबह पूजा या सामायिक भर कर ले? क्या एक साधु के लिए दो समय प्रतिक्रमण, प्रतिलेखन या दो-चार अन्य क्रियाएँ ही आवश्यक हैं? ये सब क्रियाएँ तो वह गृहस्थ में रहकर भी कर सकता है। एक गृहस्थ तो चार सामायिक लेकर बैठ भी जाता है, पर साधुजन तो एक सामायिक जितने समय भी स्थिरता नहीं रख पाते और उठने की जल्दी करते हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003888
Book TitleJage So Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2012
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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