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जागे सो महावीर अगर कहीं हमारे विचारों और महावीर के सिद्धांतों में मैत्री संबंध दिखाई देता है तो इसलिए कि कुछ ऐसी बातें जो हमारे गले उतर चुकी हैं जिसके कारण हम महावीर को अपने साथ, एक दीपशिखा की तरह अपने मार्ग को आलोकित करने हेतु साथ लिए चलते हैं।
यदि कुछ ऐसी बातें हैं जो हम जी नहीं पा रहे हैं या हम उनके साथ सही तालमेल नहीं बैठा पा रहे हैं तो इसका मूल कारण यही है कि उन बातों की दुहाई देने वाले उन बातों के पीछे छिपी हुई गहन मनोवैज्ञानिकता को सिद्ध नहीं कर पाए।
जब विश्वस्तर के वैज्ञानिक आइंस्टीन ने सापेक्षवाद का सिद्धांत दिया तो महावीर के नयवादया अनेकांतवाद के सिद्धांत की वैज्ञानिकता स्वत: ही सिद्ध हो गई अन्यथा पिछले पच्चीस सौ वर्षों में उस सिद्धांत की महान् वैज्ञानिक दृष्टि को न समझ पाने के कारण अनेकांतवाद जैसे महान् सिद्धांत की सिर्फ खिल्ली ही उड़ाई गई थी। बीसवीं और इक्कीसवीं सदी में इस सिद्धांत ने जितना आदर पाया, उतना पिछली बीस सदियों में भी शायद ही पाया होगा। यदि इस सिद्धांत को पहले ही समझ लिया जाता तो आज महावीर के धर्म के इतने बँटवारे नहीं होते। उस स्थिति में एक आचार्य दूसरे आचार्य के कथन पर आक्षेप-प्रत्याक्षेप करने की बजाय वह उनके विचारों को आदर और सम्मान ही देता।
जब मार्क्स और लेनिन ने अर्थसाम्यवाद की स्थापना पर जोर देते हुए कम्यूनिष्ट विचारधारा को जन्म दिया तब लोगों की नजर महावीर के अपरिग्रह, असंग्रह और परिग्रह-परिमाण व्रत पर गई और लोगों ने जाना कि जबअर्थ-साम्यवाद सामाजिक कल्याण, सामाजिक सहभागिताऔर सामाजिक संविभाग के लिए इतनी महत्त्वपूर्ण भूमिका रखता है तो महावीर द्वारा हजारों वर्ष पूर्व प्रतिपादित 'अपरिग्रह-व्रत' कितना अहम और उपयोगी है।
महावीर ने हजारों वर्ष पूर्व जिस नि:शस्त्रीकरण की बात कही, उसके लिए आज सारा विश्व सजग हो गया है। आज इस बात की आवश्यकता महसूस की जा रही है कि प्रत्येक राष्ट्र अपने अतिरिक्त शस्त्र-भंडारों को नष्ट कर दे, अन्यथा फिर किसी नए हिटलर, टूमेन या लादेन का दिमाग खराब हो गया अथवा अन्य कोई राजनैतिक हलचल हुई तो तीसरे विश्वयुद्ध को प्रारंभ होने में कोई देर नहीं लगेगी। महावीर के प्रथम आगम ग्रंथ 'आचारांग सूत्र' का प्रथम अध्याय ही 'शस्त्र-प्ररिज्ञा' है, जिसका अर्थ है कि शस्त्रों के उपयोग में विवेक रखा जाए।
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