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________________ डुबो देता है। हमारा शरीर तो मन की प्रेरणा से ही चलता है। मन यदि मूर्ख है तो शरीर के द्वारा मूर्खताएँ ही दोहराई जाएँगी। स्वस्थ, सकारात्मक, प्रसन्न मन जीवन और जीवटता से भरा है तो वह अपने जीवन के जहाज़ को आनन्द से कुशलतापूर्वक अपनी मंज़िल की ओर ले जाने में सफल होता है। ऐसे समझें कि एक व्यक्ति की कामना थी कि वह पानी के जहाज़ पर जाकर सैर करके आए। इस हेतु वह चाहता था कि कप्तानी भी ख़ुद ही करे। उसकी इच्छा थी, लेकिन पिता ने ऐसा नहीं करने दिया। एक दिन पिता की मृत्यु हो गई और वसीयत में उसे पानी का जहाज़ मिल गया। उसके तो मन की मुराद पूरी होने आ गई। स्वयं को जहाज का कप्तान बना लिया। पानी के जहाज़ की सभी जानकारियाँ प्राप्त करने लगा। वह प्रशिक्षित तो नहीं था, जागरूक भी न था केवल दिल की तमन्ना थी कि जहाज़ चलाऊँ और वह भी कप्तान बनकर। निकल पड़ा समुद्र में जहाज़ लेकर, पतवारें चल रहीं थीं, जहाज़ आगे बढ़ रहा था। वह अपने केबिन में से निकल कर डेक पर आया, वहाँ देखा कि एक व्यक्ति बहुत बड़ा-सा चक्का घुमा रहा था। इस चक्के का कार्य पतवारों को दाएँ या बाएँ घुमाने का था। लेकिन वह अशिक्षित इसे क्या जाने उसने सोचा यह आदमी यहाँ क्या कर रहा है जबकि पतवारें तो दूसरे लोग चला रहे हैं यह व्यर्थ ही चक्के को आगे-पीछे, दाएँ-बाएँ घुमा रहा है। जहाज़ तो पतवारों से चलता ही जाएगा। उसने आज्ञा दी कि इस व्यक्ति को हटा दिया जाए, इसकी यहाँ कोई ज़रूरत नहीं है। एक अनुभवी नाविक ने अपने कप्तान से कहासर, इसके बिना जहाज़ को ख़तरा हो सकता है। उस मूर्ख कप्तान ने कहा- यह मेरा आदेश है, हम लोग स्वयं ही निगरानी रख लेंगे। कप्तान का आदेश पूर्ण हुआ और आप समझ सकते हैं कुछ देर बाद जहाज चट्टान से टकराकर चूर-चूर हो गया। हज़ारों जानें गईं और जो बच गए होंगे वे उस मूर्ख कप्तान को कभी क्षमा नहीं कर पाए होंगे। हमारा जीवन जहाज़ की तरह और मन कप्तान की तरह है। मन प्रशिक्षित होगा तो जीवन आनन्द, सफलता, शांति के तट की ओर बढ़ता जाएगा। अशिक्षित मन से जीवन नष्ट हो जाएगा, जीवन-नैया डूब जाएगी। हम देखें और सोचें कि हमारी क्या स्थिति है। मन सध गया है या बंदर की तरह उछल-कूद कर रहा है? कहीं हमारा मन क्रोध की हवाओं से, विषय-वासना की हवाओं से हमारे जहाज़ को पथ-भ्रष्ट करता हो, इधर-उधर डोलाता हो या खतरा पैदा करता हो। देखें यह मन किधर जा रहा है - ग़लत किताबें, ग़लत संगत या विपरीत वातावरण में तो रस नहीं ले रहा है? रूप में आसक्त तो नहीं हो रहा, जीभ के स्वाद में लोलुप तो नहीं हो रहा 82 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003887
Book TitleYoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2012
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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