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________________ या अच्छी-बुरी बातों को सुनने के लिए कान उत्कंठित हो रहे हों। महर्षि पतंजलि चित्त के क्लेशों की चर्चा ही इसीलिए करते हैं कि व्यक्ति अपने मन को और मन की कमजोरियों को समझे और अपने मन, चित्त और हृदय को प्रशिक्षित कर सके कि क्या किया जाए और क्या न किया जाए। मन का मार्गदर्शन करना जीवन का मार्गदर्शन करना है। मन मूल है। मन जीवन की व्यवस्थाओं का संचालक और प्रेरक है। मन में पैदा होने वाला क्षणिक क्रोध, क्षणिक मोह, क्षणिक वासना - ये सब होते क्षणिक हैं, पर क्षणिक क्रोध, मोह, वासना देखते-ही-देखते क्षणभर में ही अपना सारा प्रभाव-दुष्प्रभाव डाल देते हैं। चंडकौशिक ज्वलंत उदाहरण है। पूर्वभव में संत बना वह चंडकौशिक अपने शिष्य पर क्रोध कर बैठा। संत अपने शिष्य को क्रोधवश मारने के लिए दौड़ा, शिष्य तो बच निकला, पर संत खंभे से टकरा गया। वहीं गिर पड़ा, मर गया और मरकर चंडकौशिक साँप बना। यह है क्षणिक क्रोध, जिसके चलते संत मरकर साँप बना। इसी तरह क्षणिक मोह वह करते हैं। धन्ना और शालिभद्र – दोनों जवाई-साले ने साथ-साथ दीक्षा ली। वे स्वयं को तपा रहे थे। जीवन की अंतिमवेला में उन्होंने 'संथारा' ले लिया। उनके स्वजन-परिजन उनसे मिलने आए। उन्होंने मिन्नत की कि एक बार आँख खोलकर वे उनको निहार लें। धन्ना तो ध्यान में ही रत रहा, पर शालिभद्र ने आँखें खोल ली। परिणाम ये निकला कि धन्ना तो मुक्त हो गया, पर शालिभद्र क्षणिक मोह के चलते केवल देवलोक ही उपलब्ध कर पाया। क्षणिक क्रोध, क्षणिक मोह, क्षणिक वासना -ये सब चित्त के संक्लेश बनकर व्यक्ति को उलझाते हैं, फँसाते हैं। कहते हैं जब अभिमन्यु चक्रव्यूह में फँसकर मारा जाता है तो उसकी माँ सुभद्रा विक्षिप्त हो जाती है। सुभद्रा का पागलपन देखकर श्रीकृष्ण कहते हैं - बहिन, लगता है तुमने अभी तक अपने मन को ठीक से समझा नहीं है, मन को ठीक से समझाया नहीं है इसीलिए आज तुम इतना प्रलाप कर रही हो। तुम जानती हो अभिमन्य ही एकमात्र ऐसा योद्धा रहा जो पूरी कौरव सेना से लड़ा। आने वाला युग उसी का उल्लेख करेगा और माताएँ ईश्वर से प्रार्थना करेंगी कि हमारे घर में भी अभिमन्यु जैसी संतान हो। वह वीरगति को प्राप्त हुआ है। सुभद्रा ने कहा - कृष्ण तुम स्वयं माँ बनते तो तुम्हें पता चलता कि माँ की ममता क्या होती है? यह आलाप‘प्रलाप भी सुभद्रा नहीं कर रही, यह तो माँ है जो बिलख रही है। तब कृष्ण ने कहाअगर यह माँ की ममता है तो इसके अंतिम संस्कार से पहले तुम इसे इस बंधन से | 83 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003887
Book TitleYoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2012
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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