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________________ गुरु ने कहा - वत्स आज जाना तो तुम्हें वहीं होगा लेकिन जाते समय अपने चित्त की वृत्तियों और मन के विचारों-विकल्पों के प्रति जागरूक होकर जाना, स्मृतिमान और संप्रज्ञाशील होकर जाना। अपनी श्वासधारा, पदयात्रा और आवागमन पर पूरी तरह जागरूक होकर जाना । जाना तो वहीं है केवल अपनी जागरूकता को साथ रखना। गुरु का आदेश था, सो राजकुमार भिक्षु को वहीं जाना पड़ा, लेकिन आज वह चल रहा है, जागरूकता के साथ। आज न कोई विचार है, न विकल्प, न खाने की इच्छा है और न कोई भोगेषणा है। वह सहज में चलता चला जा रहा है। न कोई दासी ही बुलाने आई है, वह सहज ही वहाँ पहुँचता है, आहार ग्रहण करता है और वापस लौट आता है। गुरु ने पूछा – कहो, वत्स आज की आहार-चर्या कैसी रही? भिक्षु ने कहा भंते आज की आहार-चर्या ने तो आनंद दे दिया, क्योंकि कल जो कमियाँ थीं आज नहीं दोहराई गईं। आज तो आपने जीवन-शुद्धि का, मन के काया-कल्प का, जागरूक होकर जीने का ऐसा मंत्र प्रदान कर दिया है कि अब चित्त के क्लेश-संक्लेश मेरा अनुसरण नहीं करेंगे। चित्त के क्लेश-संक्लेश उसी का अनुसरण करते हैं जो प्रमत्त होकर, निद्रित या मूर्च्छित होकर जीवन जीता है। महर्षि पतंजलि योग-सूत्रों की बात करते हुए चित्त से सीधा साक्षात्कार करवाते हैं। जब कोई भी व्यक्ति पहले-पहल अपने चित्त से साक्षात्कार करता है तो उसे न कोई प्रकाश दिखाई देता है, न ही कोई उच्च भावनाएँ नज़र आती हैं। उसे सबसे पहले अपने संस्कार, जन्मों से संचित वृत्तियाँ, कषाय, कर्म-प्रकृति के बीज और भीतर की प्रवृत्तियों से परिचय होता है। चित्त का पहला क्लेश है- अविद्या (अज्ञान)। ज्ञान व्यक्ति के जीवन और आत्मा के लिए वरदान है और अविद्या-अज्ञान अभिशाप की तरह है। ज्ञान वह पंख है जिसके द्वारा दुनिया तो क्या स्वर्ग की यात्रा भी की जा सकती है और अज्ञान कुत्ते की ऐसी पूँछ है जो न तो गुह्य प्रदेशों को छिपा सकता है और न ही मक्खी-मच्छर उड़ाए जा सकते हैं। इसी तरह अज्ञानी-अविद्यावान का कोई उपयोग नहीं होता। ज्ञान के द्वारा हम अपने चित्त का मार्गदर्शन कर सकते हैं, चित्त के क्लेश और संक्लेशों पर विजय प्राप्त कर सकते हैं। अज्ञानी तनावग्रस्त, चिंतातूर, मोहातर, क्रोधित, आर्तध्यान और रौद्र ध्यान करता ही रहता है जबकि ज्ञानी जीवन के ज्ञान, भेद-विज्ञान और तत्त्व-ज्ञान से परिचित होने के कारण वह हर परिस्थिति को भलीभांति समझता और जानता है। वह जानता है जिसका जनम है उसका मरण है, जिसका उदय है उसका विलय है। | 73 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003887
Book TitleYoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2012
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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