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________________ एक दासी उनकी सेवा में उपस्थित हुई और बोली - भंते, आप ऊपर की कोठी में पधारें। हमारी मालकिन ने आपको आहार-चर्या के लिए आमंत्रित किया है। भिक्ष का चित्त जो संक्लेश से भर रहा था, प्रसन्न हो गया कि अब ज़्यादा भटकना नहीं पडेगा। खुद ही चलकर कोई मेरे सामने आ गया है और आहार के लिए अनुरोध कर दिया। वह उस दासी के साथ कोठी में प्रविष्ट हो गया और आहार लेने लगा। तभी उसके मन में आया कि अगर वह राजमहल में होता तो खीर व पूड़ी की भी व्यवस्था हो जाती। उसका सोचना था कि मालकिन विशेष थाली लेकर उपस्थित हो गई और कहा - भंते, आप यह आहार लीजिए। वह यह देखकर चौंक गया कि थाली में नाना प्रकार के पकवान रखे हुए हैं। उसे विचार आया कि आज तो मैं जैसा सोचता हूँ वह सब कुछ उपलब्ध हो रहा है । भिक्षु ने वहीं आहार किया, अब धीरे-धीरे प्रमाद आने लगा। यह स्वाभाविक ही है कि खाना खाने के बाद प्रमाद-आलस आता ही है। वह सोचने लगा अब वापस अपने स्थान पर लौटकर जाऊँगा, लेकिन अगर यहीं कहीं आरामपूर्वक लेटने की व्यवस्था मिल जाती बहुत आनन्द रहता। तभी मालकिन ने कहा - भंते, आपके लिए शैय्या लगा दी है, आप यहीं पर विश्राम कीजिए। वह सो गया कि कुछ गर्मी महसूस हुई। विचार उठा कि महल में होता तो दास-दासी पंखा झल रहे होते। इधर विचार उठा उधर दो सेविकाएँ आईं और पंखा झलने लगीं। तभी प्यास महसूस हुई और पानी हाज़िर हो गया। उसे ख्याल आया कि क्या बात है आज मेरे सारे मनोरथ पूर्ण हो रहे हैं। लगता है यह महिला मेरे चित्त की वृत्तियों को पकड़ती है, यह मेरे मन की धाराओं को पकड़ने में समर्थ है तभी विचार उठने के साथ ही सारे कार्य तत्परता से हो रहे हैं। __ वह डरा, उसे लगा मैं राजकुमार था वहाँ तक के सारे संकल्प-विकल्प उभर कर आ गए, कहीं कुछ और अन्य विकल्प उभर आएँ और मुझे यहाँ से नज़र नीची करके जाना पड़े इससे बेहतर है मैं यहाँ से शीघ्र चला जाऊँ। जाते हुए भिक्षु का उस महिला ने मुस्कुराकर अभिवादन किया और अपने काम में लग गई। अगले दिन जब वह युवा भिक्षु आहार लेने के लिए रवाना होने लगा तभी उसके गुरु ने कहा- वत्स, कल जहाँ आहार लेने गए थे आज भी वहीं जाना। भिक्षु ने सम्मानपूर्वक इंकार करते हुए कहा - मैं अन्य किसी भी जगह जा सकता हूँ, पर उस जगह नहीं जा सकता। गुरु ने इंकार का कारण पूछा। भिक्षु ने कहा - मुझे लगता है वह महिला हमारे मन के विचारों को पढ़ने में समर्थ है क्योंकि जैसा मेरे मन में उभर कर आता है वह तत्काल उसकी व्यवस्था कर देती है। वहाँ ख़तरा है, पता नहीं कब कैसे क्या विचार आ जाएँ। 72|| Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003887
Book TitleYoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2012
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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