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________________ संध्या के समय जब दोनों संत मिले तो पहले वाले ने कहा, 'तुम अभी तक संन्यासी नहीं हुए। तुमने महिला को पकड़ा, उसका हाथ थामा, उसे कंधे पर बिठाया, यह सब करने वाला संन्यासी नहीं हो सकता। दूसरा संन्यासी हँसा और बोला, 'अच्छा, ये बात है, मैंने उसे उठाया, ले गया, पर मैं तो यह सब वहीं-कावहीं छोड़कर आ गया, तुम तो उसको यहाँ तक ढोकर ले आए। तुम्हें एक बार फिर से संन्यास लेना चाहिए। पहले ने कहा, 'अगर मैं संन्यासी नहीं हूँ तो तुम्हीं बताओ सच्चा संन्यासी कैसे हुआ जाता है?' तब दूसरे संत हाकुइन ने कहा, 'जीवन में होने वाली प्रत्येक घटना को साक्षी-भाव से देखकर उससे निकल जाना ही वास्तविक संन्यासी होना है।' मैं इसे अनासक्ति कहूँगा। दिमाग में किसी बात को, किसी वस्तु को, किसी परिस्थिति को, किसी व्यक्ति को ढोना इसी का नाम आसक्ति है, जबकि परिस्थिति के अनुसार होने वाली घटना से गुज़र जाना अनासक्ति है। मन में राग-द्वेष की वृत्ति नहीं जगनी चाहिए। राग-द्वेष ही कर्म के बीज हैं और कर्म ही हर जन्म-मरण का, सुख-दुःख का, हानि-लाभ का यश-अपयश का आधार है। सहजता और सचेतनता ही हर उठापटक से, हर ऊहापोह से, हर छातीकूटे से मुक्त होने के सीधे सरल मंत्र अनासक्ति अर्थात् सहजता। एक ओर हम अनासक्त रहें, दूसरी ओर सहजता बनाए रखें। इन दो संतों के उदाहरण से समझें - एक ने तो उठाया, नदी पार करवाई और आगे बढ़ गया। उसके मन में उस महिला के बारे में कोई सोच-विचार नहीं है लेकिन दूसरा अभी तक उस बारे में, उसके औचित्य-अनौचित्य के बारे में चिंतनमनन कर रहा है। साँझ हो जाने तक भी अभी वह उन्हीं विचारधाराओं में बह रहा है, यही है राग और द्वेष । हमारी जो पाँच वृत्तियाँ हैं, उनमें से राग और द्वेष दो प्रमुख वृत्तियाँ हैं । महावीर कहते हैं - व्यक्ति कर्म के कारण भटकता है। कर्म मोह से पैदा होता है और मोह राग और द्वेष से जन्म लेता है। राग-द्वेष मूल आधार हैं । हम अपनी वृत्तियों का निरोध करना चाहते हैं तो अपनी राग-द्वेषजनित वृत्तियों का निरोध करना होगा। राग-द्वेष के निरोध के लिए साक्षी-भाव में आना होगा, और साक्षी-भाव के लिए स्वयं को हस्तक्षेपों से, टोकाटोकी से मुक्त करना होगा। अच्छा होगा हम यह संकल्प ले लें, यह जागरूकता अपने भीतर स्थापित कर लें कि मैं टोकाटोकी नहीं करूँगा, राग-द्वेष में नहीं उलशृंगा। किसी का जन्म होना या किसी का मरण होना प्रकृति के हाथ में है। मैं भी 56 | Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003887
Book TitleYoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2012
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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