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________________ प्रकृति का एक हिस्सा हूँ। प्रकृति का धर्म परिवर्तनशीलता है। यह धर्म मुझ पर भी लागू होता है, हर जन्मने वाले पर लागू होता है। फिर मैं क्यों उलझू। गीता कहती है : सोचो, सोच-सोचकर सोचो कि तुम अपने साथ क्या लाए और क्या ले जाओगे। जीव अकेला आता है, अकेला जाता है। ये सब तो बीच के कारवाँ हैं और कारवाँ आख़िर तो बिखर जाने को ही होता है। ___मेरे भाई, जो हो रहा है उसे होने दो। हस्तक्षेप मत करो। अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थितियों में सहजता से गुज़र जाना ही वैराग्य और अनासक्ति है। हमसे जुड़ी हुई एक साधिका हैं - विजया जी। कुछ साल पहले की बात है। वे हमारे पास आईं और उन्होंने बताया कि वे सात दिन गुरु-सान्निध्य में रहेंगी। वे जॉब करती हैं। अतः जितनी छुट्टी मिलती है उसके अनुसार हमारे पास आकर ध्यान-साधना करती हैं। उन्हें आए हुए दो दिन ही हुए थे कि उनके भाई का फोन आया कि तुम्हारे घर में चोरी हो गई है, वापस आ जाओ और जो रिपोर्ट वगैरह करना है कर दो, क्या-क्या सामान चोरी गया है आकर देख लो। उसने अपने भाई से कहा - मैं तो सात दिन बाद, जब वापसी की टिकिट है तभी आऊँगी जो भी आप कर सकते हो, कर लेना। मैंने भी कहा - अगर आप जाना चाहें तो चली जाएँ, दो दिन बाद पुनः वापस आ जाइएगा। उन्होंने कहा - अरे, आप कैसी बात कर रहे हैं, जिस परिग्रह को मैं छोड़ नहीं पा रही थी; उस चोर का शुक्रिया अदा करना चाहिए कि उसने उस परिग्रह को मुझसे छुड़वा दिया। जो चला गया सो चला गया। मैं यहाँ सात दिन की साधना के लिये आई हूँ, मैं साधना-भाव में हूँ और मुझे अपने साधना-भाव में रहने दीजिए। वेरुकी रहीं। मैंने देखा कि उस चोरी के बाबत उन्होंने कोई चर्चा भी नहीं की और भाई को भी कह दिया कि इस संबंध में दुबारा फोन भी न करें। मैंने पाया कि वे सात दिनों तक उसी साधना-भाव में तत्पर रहीं। जब सातवें दिन वे जा रहीं थीं तब मैंने अन्तर्मन से उन्हें साधुवाद दिया। उनकी तितिक्षा, उनके धैर्य और अपरिग्रहभाव ने मुझे आत्मविभोर कर दिया। मुझे लगा कि इसे कहते हैं अनासक्ति, यह है साधना-भाव, इसे कहते हैं सहज वैराग्य-दशा। जो जीवन में आने वाली प्रतिकूल घड़ियों में भी अपना साधना-भाव स्थिर रखता है वही वैरागी हो सकता है। साधना के लिए इसी भाव की ज़रूरत है। केवल संन्यास ले लेना ही वैरागी बनने के लिए पर्याप्त नहीं है। साधु भी वैरागी होते होंगे, पर सच्चा वैराग्य वही है जो हमारे जीवन से मोह, मूर्छा, परिग्रह के प्रति हमारी आसक्ति को हटाए, कम करे। | 57 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003887
Book TitleYoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2012
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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