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साधक इस पद में, इस बीज मंत्र में लगातार प्रवेश करता जाए, डूबता जाए,खो जाए। पदस्थ ध्यान यानी जिससे चित्त को रमा सको, उसकी अनुप्रेक्षा, चिंतन और मनन। हम लोग 'ओऽम्' का उपयोग करते हैं। आती-जाती श्वास-धारा के साथ धाराप्रवाह और लयबद्ध ओऽम्' का स्मरण करते हैं ताकि हमारे चित्त में एकलयता आ जाए। एकलयता आने के बाद महावीर के अनुसार अब व्यक्ति परमात्म-चेतना के ध्यान में विलीन होता जाए। वह सिद्धों का ध्यान धरे। बुद्ध की भाषा में व्यक्ति धर्म की अनुपश्यना करे। पतंजलि के अनुसार व्यक्ति या तो अपने इष्ट प्रभु का ध्यान करे या ओऽम्' के स्वरूप का पुनः पुनः चिंतन और स्मरण करे। इससे हमारा चित्त जो नौका रूप है लेकिन विचार और विकल्पों की लहरों में भटकता रहता है, एकाग्रता नहीं बन पाती वह एकाग्र हो जाता है। पतंजलि कहते हैं - एकाग्र होने पर दिव्य चेतना का ध्यान धरो ताकि हम चित्त से चेतना की ओर बढ़े, भीतर के अंधकार में प्रकाश का उदय हो।
ध्यान साधना का पथ बहुत गहरा पथ है। हम सभी लोग अपने-अपने चित्त के घेरों से, कषायों से, लेश्याओं से घिरे हुए हैं। यह जानते हुए भी कि क्रोध, मान, माया, लोभ जैसे कषाय हम पर जब-तब हावी होते रहते हैं इनके कारण नुकसान भी उठाना पड़ता है, पर हम लोग इनसे मुक्त नहीं हो पाते हैं। जब तक ये कषाय भीतर दबे रहते हैं और इनका उदय नहीं होता तब तक हम सभी बाहर से इंद्रधनुष की तरह सुंदर और होली के रंगों की तरह सुहावने लगते हैं, पर जैसे ही इन कषायों में से किसी एक कषाय का भी उदय हो जाता है तो हम उसके घेरे में घिर जाते हैं। फिर हमारी वही हालत होती है जो मकड़जाल में किसी मकड़ी की हुआ करती है। यों तो कहने में सभी अच्छे हैं, पर किसके मन में क्या है इसका ज्ञान तो व्यक्ति को स्वयं को ही है। प्रश्न है हम अपने चित्त के कषायों और घेरों के यों ही अधीन रहेंगे या चित्त के आवेगों, उद्वेगों और कषायों से मुक्त होने का कोई रास्ता भी तलाशेंगे?
पतंजलि कहते हैं - अभ्यास और वैराग्य के द्वारा हम अपने चित्त का निरोध कर सकते हैं। तन्निरोधः अर्थात् तत् + निरोध । तत् अर्थात् उसका यानी चित्तवृत्तियों का निरोध। निरोध के लिए चाहिए अभ्यास और वैराग्य यानी अनासक्ति। __भीतर की साधना के लिए ही नहीं, जीवन के बाह्य साधनों को साधने के लिए भी अभ्यास करना पड़ता है। फिर चाहे चलना हो, खाना-पीना हो, सोना हो, अध्ययन करना हो या अन्य कोई भी कार्य क्यों न करना हो, हर चीज का हमें अभ्यास करना पड़ता है। यह जीवन की व्यवस्था है कि किसी भी परिणाम को प्राप्त
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