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________________ करने के लिए पूरा-पूरा अभ्यास सम्पादित करना होता है। करत-करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान' हमें इस शाश्वत वचन से जीवन का पाठ ग्रहण करना चाहिए। भला जब निरंतर अभ्यास से कल का मूर्ख आने वाले कल को महाकवि कालीदास बन सकता है तो क्या हम निरंतर अभ्यास करते-करते अपने चित्त पर विजय नहीं पा सकते? व्यक्ति का चित्त और अन्तर्मन ही स्वर्ग और नरक होता है। यदि हमारा चित्त अच्छी भावधाराओं में लगा हुआ है तो वही स्वर्ग और सुख है और यही चित्त अगर गलत और क्लेशकारी धाराओं, वृत्तियों में लगा हुआ है तो यही नरक है। महावीर कहते हैं - अप्पा कत्ता विकत्ता य। आत्मा ही कर्ता है, आत्मा ही भोक्ता है। अप्पा मित्तं अमित्तं च - व्यक्ति की अन्तरात्मा ही उसका मित्र और शत्रु है। सत्प्रवृत्तियों में स्थित रहने वाली आत्मा ही मित्र है और गलत रास्तों पर जाने वाली आत्मा ही शत्रु है। यहाँ इस दुनिया में न कोई किसी का मित्र है और न ही कोई किसी का शत्रु । यह तो व्यवहार की भाषा है कि आपकी किसी के प्रति दोस्ती है। हक़ीक़त में तो स्वयं से ही दोस्ती होती है, चित्त की एक वृत्ति दोस्त बना देती है और दूसरी वृत्ति दुश्मन बना देती है। रागमूलक वृत्ति जगी तो दोस्त बन गए और द्वेषमूलक वृत्ति जग गई तो शत्रु हो गए। जिसे हम शत्रु मानते हैं वह भी इन्सान है और मित्र भी इन्सान है। पतंजलि कहते हैं चाहे जैसी स्थिति हो अभ्यास और वैराग्य के द्वारा इन वृत्तियों का निरोध किया जा सकता है। पतंजलि निर्वृत्ति के प्रेरणादूत हैं। निर्वृत्ति अर्थात् वृत्तियों से मुक्ति । वृत्तियों से मुक्त होना ही मुक्ति है, विदेह-अवस्था है। पतंजलि अभ्यास पर जोर देते हैं । वृत्तियों से मुक्त होने के लिए ध्यान उपयोगी है और ध्यान को साधने के लिए अधिक-से-अधिक अभ्यास आवश्यक है। चित्त की निर्मल स्थिति को प्राप्त करने के लिए हमें धैर्यपूर्वक अधिक-से-अधिक ध्यान करना चाहिए। ध्यान में जल्दबाज़ी दोष है। यह मार्ग धैर्य का मार्ग है। यहाँ जो जल्दबाज़ी करता है वह टिक ही नहीं पाता। अधीरता चंचलता की निशानी है और चंचलता ध्यान की दुश्मन। इस शब्द पर हम ज़्यादा-से-ज्यादा ध्यान दें और वह शब्द है – 'अभ्यास, निरंतर अभ्यास।' यह जो निरंतरता है वही सफलता की नींव है, वही समाधि की चाबी है। निरंतरता बनी रहे तो रस्सी से भी पत्थर को काटा जा सकता है, पत्थरों से इमारतों को बनाया जा सकता है, पथरीली ज़मीनों पर भी ठंडे पानी के कुएं खोदे जा सकते हैं। मैं कहा करता हूँ - यदि कोई नियमित आधा घंटा स्वाध्याय करे तो पाँच वर्ष | 49 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003887
Book TitleYoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2012
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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