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________________ अर्थात् अहंकार, राग, द्वेष और मृत्यु-भय - ये चित्त के पाँच क्लेश हैं । क्लेश कष्ट और दुःख हैं। ध्यान के द्वारा इन क्लेशकारी वृत्तियों का नाश किया जा सकता है। हमारे अन्तर्मन में अलग-अलग समय पर अलग-अलग वृत्तियों और विकल्पों का उदय होता रहता है। चित्त का निरोध करने के लिए पतंजलि, महावीर, बुद्ध सभी अपने-अपने ढंग से युक्तियाँ बताते हैं। महावीर ने अनुपश्यना शब्द का प्रयोग किया, बुद्ध ने विपश्यना और पतंजलि निरोध शब्द का प्रयोग करते हैं । निरोध अर्थात् रोकना या अंकुश लगाना, उसका क्षय करना। बुद्ध का कहना है कि इसके लिए हमें चित्त को सचेतनतापूर्वक देखना होगा। वे तीन शब्दों का प्रयोग करते हैं - आतापी, संप्रज्ञानी और स्मृतिमान। तपस्वी बनकर अपने चित्त में उठने वाले रागद्वेषमूलक सभी बीजों को काटना, नष्ट करना - यह आतापी है। मन में प्रकृति के जो सूक्ष्म व छोटे-छोटे बीज हैं उन्हें काटना। संप्रज्ञानी अर्थात् अपनी प्रज्ञा को, अपनी बुद्धि को अपनी चित्तवृत्तियों के प्रति जागरूक करना। यानी चित्त की हर लहर के प्रति, हर तरंग के प्रति,हर धारा के प्रति अपनी बोध-दशा को गहन करना।स्मृतिमान अर्थात् सचेतन होना। अपनी चित्तदशाओं के प्रति पल-पल जागरूक होना। बुद्ध ने यह भी कहा कि साधक राग-द्वेष से रहित होकर आती-जाती साँस-धारा को देखे, साँसों पर अपनी गहराई बनाए, अपनी देह की संवेदनाओं को देखे, अपने चित्त को देखे। इस साढे तीन हाथ की काया में जो भी उदय और विलय हो साधक उसका विपश्यी बने, साक्षी बने, प्रज्ञाशील बने।साधक के लिए ज़रूरी है कि वह निरपेक्षभाव में रहे अन्यथा चित्त के जंजाल से कैसे मुक्त हो सकेगा। महावीर ने चित्त की तहों को, चित्त के कषायों को काटने का दूसरा तरीका बताया- उन्होंने कहा कि चित्त को केन्द्रित करने के लिए व्यक्ति त्राटक करे।कभी लोक को आधार बनाए, कभी झरने को, कभी पानी को, कभी दीपशिखा को, कभी काया को, कहीं भी अपने चित्त को स्थिर करे ।साधक पहले पिंडस्थ ध्यान करे, फिर पदस्थ ध्यान करे और अंत में रूपातीत ध्यान करे। पिंडस्थ ध्यान अर्थात इस देह में अपने ध्यान को स्थित कर देह की भलीभांति अनुपश्यना करे, फिर चित्त में स्थित होकर पदस्थ ध्यान करे। क्योंकि वे जानते हैं आम इन्सान के लिए सीधे अपने चित्त को स्थिर करना मुमकिन नहीं हो पाता है। इसलिए पदस्थ ध्यान-किसी भी मंत्र का उपयोग कर सकते हैं। जैसे - कोऽहम् - मैं कौन हूँ, मैं कहाँ से आया हूँ, मैं यहाँ से कहाँ जाऊँगा, मेरा परिचय क्या है? क्या माता-पिता ही मेरा परिचय है, मेरे जन्म का आधार क्या है? या ओऽम् या सोहम् या अर्हम् का श्वासोश्वास के साथ स्मरण करे। | 47 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003887
Book TitleYoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2012
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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