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________________ लें तो भीतर व्याप्त रहने वाली परमात्ममूलक, निर्माणमूलक, वास्तविक सत्य की, त्रिकाल सत्य की चेतना से साक्षात्कार कर सकते है। प्रभु को बाहर भी देखो, पर भीतर झाँककर भी देखो। लोगों का चेहरा ज़रूर देखो, पर अपना चेहरा पहले आईने में देख लो। एक बार स्वयं में चलो, अपने-आप से दोस्ती करो। ___योग स्वयं से दोस्ती करने का पैग़ाम है, आत्म-मित्र होने का रास्ता है। योग हमें जोड़ता है स्वयं से। एक बार स्वयं से भी प्यार करके देखो। दूसरों से किया गया प्यार तो यहीं छूट जाने वाला है, कोई भी साथ नहीं जाने वाला है। माना कि यहाँ हमारे पास अन्न के भंडार हैं, पर हमारे साथ एक चुटकी आटा भी नहीं जाने वाला। यहाँ चीखेंगे, चिल्लाएँगे तो बहुत से सुनने वाले होंगे लेकिन देह को छोड़कर जाएँगे तो हमारी चीख सुनने वाला कोई नहीं होगा। वहाँ तो वह प्रभु ही बचाएगा जिससे हमने प्रीत लगाई है। अस्पतालों में कौन बचाने वाला है, दो-चार गोलियाँ भले ही खा लो, पर तड़पना तो हमें ही पड़ेगा। हज़ारों वर्षों से ज्ञानीजनों ने यह कहने की कोशिश की कि हमारा सच्चा मंदिर तो हमारे भीतर है लेकिन हम तो हमेशा से सत्य को बाहर ही खोजने के आदी रहे हैं, व्यक्ति अपने भीतर झाँकने की तक़लीफ़ नहीं उठाता। आँखें बाहर खुलती हैं, चित्त की गतिविधियाँ बाहर चलती हैं इसलिए अपने प्रभु को भी इसने बाहर देखना शुरू कर दिया। अगर प्रभु है तो भीतर हृदय के मंदिर में है, अन्तर्घट में है। बाहर जो कोलाहल चल रहा है इसे अपने चित्त में, मन में शांत करें तभी अपने हृदय से जुड़ सकते हैं। अपने दिमाग को दिल से जोड़ें तभी अपने प्रभु से जुड़ सकते हैं। अगर दिमाग की चिंताओं में, इसकी ऊहापोह में, मन की आपाधापी में उलझे रहे तो ज़िंदगी में कभी धूप, कभी छाँव नज़र आएगी तब परमात्मा हमें अंदर नहीं बल्कि कभी पैसे में, कभी दूसरे के प्यार में नज़र आएगा। ___जैसे ही हम अंदर प्रवेश करेंगे तो एकदम से मंदिर की घंटियाँ सुनाई नहीं देंगी, वहाँ तो वृत्तियाँ उठती दिखाई देंगी, मन उधेड़बुन में लगा नज़र आएगा, पर अगर हम वहाँ ठहर गए, भीतर में रुक गए, उस सागर के किनारे जम ही गए तो कहा नहीं जा सकता कि अपूर्वकरण की स्थिति कब घट जाए। कब डूबा हुआ मंदिरों का नगर उभर आए और कब उसका संगीत, अनहद नाद, ब्रह्मनाद, उसका दिव्य प्रकाश, उसकी विराट भूमाशक्ति हमारे सामने प्रकट हो जाए, कहा नहीं जा सकता। किनारे पर पहुँचकर जिसने देखा कि वहाँ कोई मंदिर नहीं है केवल वृत्तियों का उतारचढ़ाव ही चल रहा है और इन लहरों को देखकर अपने गाँव लौट गए, ऐसे हज़ारों 170 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003887
Book TitleYoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2012
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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