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________________ घंटियाँ सुनने के लिए ले चलें।वहाँ सौम्यता है, शांति है, हरी-भरी प्रकृति है, केवल चिड़ियों की चहचहाट है, जहाँ खुशबू भरे फूलों की बस्ती है, पेड़ों की छाया है, सरोवर का मीठा शीतल जल है वहाँ स्वयं को ले चलें। वहाँ चलें जहाँ मन यह न कहे कि भागो, कहाँ फँस गए। वहाँ बैठकर हम भीतर की गुफा में लीन हो जाएँ। वहाँ बैठकर सारी चीजें शून्य हो जाती हैं। वहाँ संसार नहीं होता, वहाँ एक ही चीज़ शेष होती है - शिवरूप। वहाँ व्यक्ति की चेतना, अन्तर्-आत्मा, उसका प्रिय प्रभु, परमात्म-तत्त्व ही शेष रह जाता है। तब परमात्मा का मंदिर उभरता है और अनूठा, अद्भुत, विलक्षण संगीत,अनूठा सौन्दर्य और अपूर्वकरण की स्थिति घटित होती है। वह स्थिति जिसमें मीरा अपने पैरों में घुघरू बाँध लेती है और दुनिया ज़हान की परवाह किए बिना थिरकने लगती है और एक दीवानापन अपने साथ लिये फिरती व्यक्ति हृदय की ओर चले।अगर हमें परमात्मा से प्रीत है, उसके दिव्य संगीत का आनन्द लेना है, उसके प्रकाश तक पहुँचना है तो हमें अपने-आप में उतरना होगा। अगर लगता हो कि बाहर के मंदिरों में जाकर हम परमात्मा तक पहुँच जाएँगे तो ऐसा न समझें। उन मंदिरों का निर्माण इंसानों ने किया है, वहाँ प्रवेश कर इंसानों को तो पाया जा सकता है लेकिन परमात्मा को पाने के लिए उस किनारे तक पहुँचना होगा जिसका निर्माण ईश्वर ने किया है। इंसान का निर्माण ईश्वर ने किया, नर का निर्माण नारायण ने किया तो हमें नारायण को पाने के लिए नर के भीतर उतरना होगा। संसार में सच्चा मंदिर तो इंसान के भीतर रहता है। बाहर के मंदिरों में तो विरोधाभास है, उनमें कहीं एकरूपता नहीं है। किसी का शिखर अलग है, तो किसी का गर्भगृह जुदा है, किसी में मूर्तियाँ पृथक हैं, लेकिन यह तय है कि सारी मूर्तियाँ पत्थर की हैं, उनमें एक भी मूर्ति परमात्मा की नहीं होती। परमात्मा की मूर्ति वहीं मिलेगी जहाँ कोई भेद नहीं है, जहाँ तर्क-वितर्क काम नहीं करते हैं । यह स्थान है प्राणीमात्र के भीतर का घट, हृदय का सागर, हृदय का मंदिर। दिल में अगर दिलवर दिख जाए तो दुनिया के कण-कण में भगवान है। अन्यथा जिसने अड़सठ तीर्थों की यात्रा कर ली है उनसे पूछो कि उन्हें परमात्मा का कितना सान्निध्य उपलब्ध हो पाया। जो व्यक्ति आठ वर्ष की उम्र से लेकर अस्सी वर्ष की उम्र तक सतत मंदिर जा रहा है उससे पूछो तुम्हें कितनी बार परमात्मा के दिव्य संगीत का आनन्द मिला।आपको मेरी बात नकारात्मक लग सकती है, लेकिन मैं कहना चाहूँगा कि अब एक यात्रा फिर से शुरू करो कि जितने वर्ष हमने बाहर के मंदिरों के लिए लगाए हैं उसका दसवाँ हिस्सा भी अपने हृदय के मंदिर की ओर लगा | 169 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003887
Book TitleYoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2012
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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