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________________ लोग परमात्मा के मंदिरों की ओर जाते हैं पर कसौटी में खरे नहीं उतर पाते।संगीत के आकर्षण में पहुँच तो जाते हैं, पर वहाँ कोई संगीत नहीं मिलता। यह जानकर अपनी दैनिक जिंदगी में, इस बाहरी दुनिया में उलझ जाते हैं, परिणामतः मंदिर पुनः अदृश्य हो जाता है। प्रभु तो बुला रहे हैं, पर वहाँ जाकर थोड़ा-सा भी धैर्य नहीं रख पाते और वापस अपनी मोहमाया की ओर लौट जाते हैं। __योगसूत्र हमें नाभि, हृदय और ललाट-प्रदेश पर केन्द्रित होने की प्रेरणा दे रहा है, लेकिन इन स्थानों पर केन्द्रित होना शरीर पर केन्द्रित होना नहीं है। स्थूल रूप से नाभि शरीर का केन्द्र बिंदु है, हृदय हमारी चेतना का केन्द्र है और ललाट, मस्तिष्क हमारी ज्ञान-चेतना का केन्द्र बिंदु है। लेकिन ये केवल केन्द्र बिंदु नहीं हैं ये तो परमात्मा से मिलने के छिपे हुए अदृश्य द्वार हैं। हम किसी भी दरवाज़े का चयन कर पहुँच सकते हैं। जैसे कोई पहाड़ के शिखर पर जाना चाहता है तो इसका कोई तय रास्ता नहीं है, वह किसी भी दिशा से जा सकता है लेकिन यह तय है कि जो एक रास्ता चुनकर निरन्तर बढ़ने का प्रयत्न करता रहेगा, वह अवश्य ही शिखर पर पहुँचेगा। बीच में थकेगा भी, कभी विश्राम भी करेगा, पाँव भी फिसलेंगे, कभी मन टूट भी जाएगा लेकिन जोधैर्यपूर्वक चलना जारी रखेगा, पहुँचेगा अवश्य ही। स्थूल के भीतर व्याप्त जो सूक्ष्म है, इस देवालय के भीतर जो देव है वह प्रकट होगा, उसका संगीत आएगा और आनंद उभरेगा। जिसने आँचल में दूध दिया, जिसने फूलों को खुशबू दी, जो रखवाला है दुनिया का, वह मालिक तेरे अंदर है। यह धरा कि जिस पर रहते हम, यहाँ ठौर-ठौर पर मंदिर है. बाहर के मंदिर देख लिए, सच्चा मंदिर तो अंदर है। पापों से पार उतरने को, सब तीर्थों की यात्रा करते. जो भवसागर से पार करे वह शांति तीर्थ तो अंदर है। जिससे तन का हर मैल धुले, वो गंगा बहे हिमालय से, पर मन का मैल धुले जिससे वह गंगाधर तो अंदर है। हर पंथ ग्रंथ हर संत हमें जीवन की राहें दिखलाते, पर जीवन का जो तिमिर हरे, वह धर्म-ज्योति तो अन्दर है। सुख दुःख है धूप छाँव जैसे, यह 'चंद्र' सभी का दृष्टा है, जिससे शाश्वत आनंद मिले, वह निजानन्द तो अंदर है। जो आँचल में दूध भर देता है, फूलों को खुशबू देता है, प्राणीमात्र के भीतर | 171 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003887
Book TitleYoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2012
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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