SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 126
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ होता है पर श्वास कभी गर्म या ठंडी महसूस नहीं होती। यह है प्रकृति की अद्भुत व्यवस्था। हमारे गले में दो नलिकाएँ हैं - एक श्वसन-नलिका, दूसरी अन्न-नलिका। एक के द्वारा हम खाद्य और पेय पदार्थ ग्रहण करते हैं और दूसरी के द्वारा श्वास भीतर जाती है। किसी पेड़ की तरह ही हमारे फेफड़ों की व्यवस्था है। जैसे पेड़ में जड़, तना, शाखा, प्रशाखा होती है उसी तरह हमारे फेफड़ों के गुब्बारे में बारीक-बारीक असंख्य नलिकाएँ श्वास को ग्रहण करती हैं और बाहर निकालती है। फेफड़ों के वायुकोष करोड़ों की संख्या में जो श्वास लेते हैं और छोड़ते हैं। जब हम श्वास लेते हैं तो फेफड़े फूलते हैं और हृदय पर दबाव बनाते हैं जिससे हृदय पंपिंग करने में समर्थ होता है। जैसे लोहार की धौंकनी चलती है वैसे ही हमारी श्वसन-व्यवस्था चलती है। प्राणवायु के आवागमन से हमारे शरीर की सारी व्यवस्थाएँ संचालित होती हैं। हम जो श्वास लेते हैं वह अमृत है और जो छोड़ते हैं वह ज़हर है। हम ऑक्सीजन लेते हैं वह अमृत है और कार्बन-डाई-ऑक्साइड जो छोड़ते हैं वह ज़हर है। प्राणायाम को समझने के लिए श्वास लेने के तरीके को समझना होगा। प्राणायाम अर्थात् श्वास को विशेष क्रम देते हुए ग्रहण करना और छोड़ना। प्राणायाम अर्थात् एक आयाम, एक तरीका देकर श्वास को लेना और छोड़ना। प्राकृतिक रूप से श्वास लेना और छोड़ना तो एक व्यवस्था है लेकिन जब श्वास के द्वारा हम अपनी सोई हुई चेतना और ऊर्जा को जाग्रत करना चाहते हैं, तब हमें इसे एक ख़ास विधि, एक प्रक्रिया देनी पड़ती है। यह अजब बात है कि शरीर के सत्तर प्रतिशत रोग विभिन्न प्रकार के प्राणायामों द्वारा काटे जा सकते हैं। बाबा रामदेव योग आसनों के कारण मशहूर हो गए, श्री रविशंकर जी ने प्राणायाम को अपनाया, गोयनका जी ने विपश्यना के द्वारा श्वासोश्वास पर ध्यान प्रक्रिया करवाई। एक बात स्मरण रहे कि श्वास हमेशा सचेतनता के साथ ली जाए। विपश्यना में जो आनापान सती है अर्थात् आती-जाती श्वासों पर अपनी जागरूकता कायम करना, आती-जाती प्रत्येक साँस पर अपनी प्रत्यक्ष व ठोस अनुभूति करना ही आनापान सती है। सती अर्थात् स्मृति। अपने चित्त को, अपनी बुद्धि और जागरूकता को श्वास पर केन्द्रित कर उसके उदय और विलय को तटस्थ भाव से जानना, रागद्वेष रहित होकर,शांत चित्त होकर, उसका ज्ञाता-दृष्टा होना ही आनापान सती है। जब भी प्राणायाम करें सचेतनता और जागरूकतापूर्वक करें, ताकि वह हमें | 127 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003887
Book TitleYoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2012
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy