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________________ हमारी नासिका के दो द्वार हैं जिसमें दाहिने द्वार को सूर्य स्वर और बाएँ को चंद्र स्वर कहते हैं, ऐसा क्यों? क्योंकि दाहिनी नाक से जो साँस चलती है वह गर्म होती है और बाईं नाक से चलने वाली श्वास ठंडी होती है। इसलिए दाहिनी ओर से चलने वाली श्वास को सूर्य नाड़ी से चलने वाली श्वास और बाईं ओर से चलने वाली श्वास को चंद्र नाड़ी से चलने वाली श्वास कहते हैं। प्रकृति की व्यवस्था के अनुसार ढाई दिन में अपने आप श्वास दाईं से बाईं और पुनः ढाई दिन बाद बाईं से दाईं चलती रहती है। यह क्रम लगातार बना रहता है। हालाँकि एक तरीका साँस बदलने का यह भी है कि करवट बदलकर सोना। जिस ओर से श्वास चल रही है उस ओर की करवट लेकर सोने से श्वास अपने-आप दूसरी ओर से चलने लगती है। हवा का ऐसा दबाव बनता है कि नासिका की वायु पहले से दूसरे में चली जाती है या दूसरे से पहले में आ जाती है। यह प्राकृतिक व्यवस्था है। प्राचीन काल में जब लोग घर से बाहर निकलते थे तो अपनी नासिका के आगे हाथ लगाकर वायु के बाहर आने से जान लेते थे कि उनका कार्य होगा या नहीं। कौनसा स्वर चल रहा है इससे पता चल जाता था। अगर सूर्य स्वर चल रहा होता तो कार्य की सफलता का अनुमान लगाते और चंद्र-स्वर से कार्य की मंदता की आशंका रहती। नासिका से जो श्वास लेते हैं वह कैसे छनकर जाती है यह देखें - हम जो साँस लेते हैं, वह उन रोओं से छनती है जो हमें बाहर से ही दिखाई देते हैं, फिर अंदर की ओर और छोटे-छोटे बाल होते हैं उनसे छनती है फिर आगे बढ़कर गले में जो रेशे होते हैं उनसे गुजरते हुए फेफड़ों में पहुँचती है। जैसी हवा बाहर होती है अगर वह वैसी ही सीधे भीतर चली जाए तो अत्यंत घातक हो जाएगी। हम जानते हैं कि सर्दी की शुष्क हवा हमारी त्वचा को सूखा बना देती है, वह फटने लगती है और गर्मी की गर्म हवा हमारी त्वचा को पसीने से तर करके उस पर धूल-मिट्टी आदि जमा देती है। त्वचा के छिद्र बंद हो जाते हैं, लेकिन शरीर का धर्म है कि हम जो श्वास लेते हैं वह सम-शीतोष्ण होकर ही अंदर पहुँचती है अर्थात् हमारे शरीर का जो तापमान रहता है श्वास उसी तापमान पर चलती है। हमारे शरीर का एक निश्चित तापमान रहता है। हम अगर बाहर ठंडी या गर्म वायु में श्वास लेते हैं तो यह अंदर प्रविष्ट होकर उस निश्चित तापमान पर आ जाती है। जैसे ही वायु अंदर आती है तो नासिका से लेकर पूरे श्वसन-तंत्र में एक श्लेष्म रहता है जो आर्द्र होता है, इसकी आर्द्रता शरीर के तापमान पर होती है। ली गई श्वास इस श्लेष्म से गुजरते हुए शरीर के तापमान पर आ जाती है इसलिए हमें देह के बाह्य तल पर तो सर्दी-गर्मी का अहसास 1261 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003887
Book TitleYoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2012
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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