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अन्य कुछ दिखाई नहीं पड़ेगा। ठीक ऐसे ही आज संतों की नज़र में श्रावक की सादगी नहीं, सम्पन्नता प्रमुख हो गई है। सूत्र है
जो मुणिभुत्तविसेसं भुंजइ सो भुंजइ जिणुवदिटुं।
संसारसार सोक्खं कमसो णिव्वाणवरसोक्खं ।। 'जो गृहस्थ मुनि को भोजन समर्पित करने के पश्चात् बचा हुआ भोजन स्वीकार करते हैं, उन्हीं का भोजन करना सार्थक होता है। वे जिनोपदिष्ट संसार का सारभूत सुख तथा क्रमशः मोक्ष को प्राप्त होते हैं।'
वह श्रावक मुक्ति-लाभ पाता है जो साधुओं को कल्पनीय किंचित् भी आहार समर्पित करता है; जो साधुओं को आहार देने के पश्चात् भोजन करने में धन्यभागिता समझता है। वह अपने इस उदार-भाव और संविभाग-सौजन्य के कारण क्रमशः मोक्ष को उपलब्ध हो जाता है। इतना समर्पण, इतना अहोभाव कि आनन्द का झरना फूट पड़े। निश्चित ही मोक्ष उसके लिए है। क्या तुम्हारे अंदर आज वह भाव है कि खीर का एक कटोरा मुनि को अत्यंत समर्पित भाव से देने पर शालिभद्र का जन्म हो जाए ? लोग तो साधुओं की सेवा-चर्या व्यवहार निभाने को करते हैं, कहीं भक्ति या समर्पण की सुवास दिखाई नहीं देती।
भगवान कहते हैं कि हर गृहस्थ अवढर दानी बने। अपने पास जो है, उसे वह मानवता के लिए समर्पित करे और ईश्वर की, परमात्मा की पूजा-अर्चना-भक्ति करे। ये दो मंगलमयी मंत्र हैं। साथ ही व्रत-अहिंसा, सत्य, अचौर्य, अपरिग्रह और स्वदार संतोष व्रत को अंगीकार करे। वह व्यसन-मुक्त जीवन जिए। इसे आप गृहस्थ के लिए श्रावक-धर्म जानें। __ आज हमने भगवान की पावन वाणी में से जीवन के कुछ जीवंत सूत्रों को जानने का प्रयास किया है। हम इन सूत्रों को अन्तर्-घट में उतारें और उनका अनुगमन करें। भगवानश्री की वाणी तभी सार्थक होगी जब हम अमल करें कि कुछ गृहस्थ साधुओं से भी श्रेष्ठ होते हैं। अपनी श्रेष्ठता बढ़ाएँ, अपने जीवन-मूल्यों को स्वीकार करें, नैतिक आदर्शों को स्वीकार करें और गृहस्थ के दायित्वों को वहन करें। ऐसा हो, तो आपका गृहस्थ होना भी सार्थक हो जाए।
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धर्म, आखिर क्या है ?
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