SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 93
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आनन्द मिलता है। दान दो समर्पण की भावना से, आनन्द-भाव से। दान के बदले में यश की कामना न रखो। आपने देलवाड़ा और राणकपुर के मंदिर देखे होंगे, क्या वहाँ किसी का नाम लिखा देखा है; कोई पत्थर लगा है जो दानदाता की सूची बता सके ? गृहस्थ का पहला दायित्व है कि अपने पास आवश्यकता से अधिक होने पर सहर्ष दान करे। दूसरा दायित्व है पूजा-गुरु की पूजा, धर्म की पूजा, देव की पूजा, ईश्वर की पूजा। ईश्वर की पूजा करके हम अपने भीतर के ईश्वरीय तत्त्व को पहचानते हैं और खुद की भगवत्ता को पहचानने में सफल होते हैं। गृहस्थ के साथ भगवान श्रमण के दायित्व भी बताते हैं। वे कहते हैं कि श्रमण को ध्यान और स्वाध्याय करना चाहिए। इस आधार पर दो श्रेणियाँ स्पष्ट हैं-गृहस्थ और साधु की। गृहस्थ अगर दान और पूजा करके मुक्त हो सकता है तो साधु ध्यान और स्वाध्याय के द्वारा। श्रमण के हाथ से अगर ध्यान का धागा छूट रहा है, तो समझो जीवन छूट रहा है। श्रमण के पास सबकुछ हो–बाह्य वैभव, सम्पन्न लोगों का जमावड़ा, राजनीति में पैठ, लेकिन ध्यान की संपदा न हो तो ये सब चीजें बेकार हैं। राष्ट्र-संत तो सहजता से बना जा सकता है, लेकिन आत्म-संत होना बहुत मुश्किल है। धर्मगुरु कहलाना आसान है, धर्म सभाओं में प्रवचन देना भी वाग्मिता है, लेकिन ध्यान से गुजरना बहुत मुश्किल है। चार घंटे प्रवचन दिया जा सकता है, पर चालीस मिनट ध्यान लगाना बहुत मुश्किल है। श्रमण ध्यान से विमुख हो रहा है तो धर्म से च्युत हो रहा है, श्रमणत्व से गिर रहा है। उसका धर्म केवल उपधान कराना नहीं है और न ही यह सूची बनाना कि उसने कितने मंदिरों का शिलान्यास किया या प्रतिष्ठा करवाई। एक समय था जब संत की पहचान उसकी सादगी, चरित्र, ध्यान और स्वाध्याय से होती थी, लेकिन आज....? धनिक वर्ग ने संतों को उनके चारित्र्य से अलग करने को विवश कर दिया है। धनिकों ने धन खर्च करके अपनी प्रतिष्ठा बढ़ानी शुरू कर दी है और संतों ने धनिकों की खुशामद करके स्वयं को प्रतिष्ठाचार्य बना लिया है। अरे, वह परमात्मा की क्या प्रतिष्ठा करेगा जो आत्म-प्रतिष्ठित नहीं हो पाया है। आप देखते हैं कि प्राचीन प्रतिमाएँ कितनी प्राणवंत हैं, उनका अतिशय है, जबकि अब उनमें कोई अतिशय नहीं रह गया है, जो आए दिन प्रतिष्ठित होती रहती हैं। धर्म, आखिर क्या है ? 84 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003886
Book TitleDharm Aakhir Kya Hai
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalitprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2012
Total Pages162
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy