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________________ हो पाता और श्रमण-जीवन में ध्यान और स्वाध्याय मुख्य हैं, इनके बिना श्रमण नहीं हुआ जा सकता। श्रावक के लिए दान और पूजा दो मुख्य धर्म हैं और श्रमण के लिए ध्यान और स्वाध्याय। दान देने से अपरिग्रह की वृत्ति फलित होती है और पूजा करने से श्रावक स्वयं के भीतर छिपे परमात्मा को देखने की दृष्टि प्राप्त करता है। हम तो दान भी यश के लिए करते हैं। कहाँ नाम लिखा जा रहा है, किस प्रस्तर पर नाम उत्कीर्ण होने वाला है, यह देखकर दान किया जाता है। वहाँ कोई अपरिग्रह का भाव नहीं होता। यश और प्रसिद्धि की कामना होती है। दान समर्पण की भावना से नहीं दिया जाता, न ही सहयोग की भावना से दिया जाता है, केवल नाम कमाने के लिए ही दान दिया जा रहा है। हृदय से दिया गया दान कीमती है चाहे वह एक कौड़ी का ही क्यों न हो। एक बड़ी प्रसिद्ध ईसाई संत महिला हुई हैं-थैरेसा। उसने सोचा कि मैं चर्च का निर्माण कराऊँगी। वह एकदम निर्धन संत थी किसी भिक्षु की तरह। उसने चर्च में एकत्र भक्तों से कहा कि मैं एक विशाल चर्च बनाना चाहती हूँ। भक्तों ने कहा-तुम्हारे पास इतना पैसा कहाँ है कि चर्च बना सको। तुम्हारे पास आखिर कुल कितनी संपत्ति है। थैरेसा ने कहा-'मेरे पास दो पैसे हैं' और जेब से निकालकर दो पैसे रख दिए। लोग हँसने लगे, उन्होंने कहा कि तू पागल हो गई है। दो पैसों से कहीं चर्च बनता है ! थैरेसा ने कहा कि मेरे पास दो पैसे हैं और एक पैसे वाला और है। लोगों को पता था कि अन्य कोई धन-संपन्न व्यक्ति थैरेसा का भक्त नहीं है। लोगों ने पूछा-वह कौन है। थैरेसा ने कहा मेरे दो पैसे+मेरा परमात्मा। मैं अकेली नहीं हूँ। मेरे साथ परमात्मा भी है। फिर तीसरे की क्या जरूरत ! और कहते हैं कि विश्व का सबसे विशाल और सुंदर चर्च उन दो पैसों की नींव पर खड़ा है। ___ जिस दान में यश की कामना नहीं है वह परमात्मा से जुड़ जाता है और यश से जुड़ा हुआ दान व्यर्थ हो जाता है। लेकिन हमारी तो आकांक्षा होती है कि जो हमने किया है सामने वाला उसका आभार माने। हम देते हैं तो वापस पाने की इच्छा भी रखते हैं। हम चाहते हैं कि जो हम दे रहे हैं सूद समेत वापस मिल जाए। इसलिए प्रभु ने कहा कि व्यक्ति यही मानकर दान दे कि उसके पास आवश्यकता से अधिक है; इसलिए दे, क्योंकि देने से समझें, गृहस्थ के दायित्व Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003886
Book TitleDharm Aakhir Kya Hai
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalitprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2012
Total Pages162
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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