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________________ जिस वृक्ष के नीचे अलाव जलाया गया था, उस वृक्ष पर चिड़िया का जोड़ा बैठा था। हालांकि ऐसा होता नहीं है, पर ऐसा हुआ। नर पक्षी बोला, 'लगता है हमारे यहाँ अतिथि आए हैं और भूखे प्रतीत होते हैं। तू बच्चों का ध्यान रखना, मैं अग्नि में गिर जाता हूँ और झुलस जाऊँगा तो वे अपने आप खा लेंगे।' ऐसा ही हुआ, लेकिन राजकुमारी थी कि भूख से व्याकुल हुई जा रही थी। मादा चिड़िया भी आग में गिर पड़ी, फिर भी उसकी भूख शांत नहीं हुई। तब बच्चों ने सोचा कि अतिथि के लिए हमारे माता-पिता ने प्राण उत्सर्ग कर दिये, तो हम भी क्यों न अतिथि-सत्कार के निमित्त स्वयं की आहुति दे दें। और बच्चे भी अग्नि में झुलस गए। सुबह हुई तो राजकुमारी अपनी राह चली गई। संत और युवक पीछे बचे रहे। वे दोनों भी आश्रम में आ गए। युवक ने पूछा, 'मेरे प्रश्न का उत्तर ?' 'दे तो दिया', संत ने कहा। युवक ने कहा, 'लेकिन मुझे तो समझ में नहीं आया। तब संत ने कहा, 'अगर मुनित्व स्वीकार करना है तो उस संत की तरह होना जो राजकुमारी के द्वारा वरमाला डाली जाने पर भी आसक्त नहीं हुआ, संसार उसे खींच नहीं सका और अगर गृहस्थ मैं रहो तो उस चिड़िया के परिवार की तरह रहना जो अतिथि-सत्कार के लिए अपने प्राण तक भी विसर्जित कर दे। रे, रे समकित जीवड़ा, करे कुटुम्ब प्रतिपाल। अंतर से न्यारो रहे, ज्यों धाय खिलावे बाल ।। तुम गृहस्थ रहो तो एक धाय की तरह, किसी नर्स की तरह रहो। तुम देखते हो अस्पतालों में नर्स अपने कर्तव्य-पालन के लिए मरीजों की देखभाल करती है। लेकिन किसी मरीज से नाता नहीं जोड़ती। ठीक इसी तरह संसार में अपने कर्तव्यों का पालन करो और किसी से आसक्ति मत बनाओ। नर्स रोगी की सेवा करने के बावजूद आंतरिक रूप से उससे मुक्त रहती है, महज अपने कर्त्तव्य और फर्ज का निर्वाह करती है। वैसे ही गृहस्थ भी नर्स की तरह मुक्त और अनासक्त रहें। भगवान कहते हैं, ऐसे गृहस्थ संत से श्रेष्ठ हो सकते हैं। श्रावक-धर्म का पालने करने लिए भगवान का सूत्र है दाणं पूया मुक्खं, सावयधम्मे ण सावया तेण विणा। झाणाज्झयणसं मुक्खं, जइधम्मे तं विणा तहा सो वि।। श्रावक धर्म में दान और पूजा मुख्य हैं। इनके बिना व्यक्ति श्रावक नहीं धर्म,आखिर क्या है? Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003886
Book TitleDharm Aakhir Kya Hai
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalitprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2012
Total Pages162
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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