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________________ हैं। मैंने भी बहुत से अनासक्त श्रावक देखे हैं। मैं साक्षी हूँ एक ऐसी घटना का जिसे जानकर आप भी नतमस्तक हो जाएँगे। हम जब कलकत्ता में थे, तब की घटना है। एक श्रावक भाई पौषध लिए हुए था कि रात्रि आठ बजे कुछ लोग आए और बोले आपका पुत्र दुर्घटनाग्रस्त होकर चल बसा है। उस श्रावक ने कहा, 'मैं तो अभी पौषध में हूँ, तुम्हारे जो गुणधर्म हों, उन्हें सम्पन्न कर लो।' उनका एकमात्र पुत्र चल बसा और वे निर्लिप्त भाव से स्वीकार कर रहे हैं। वे रात भर पौषध में ध्यान-मग्न रहे कि कहीं मोहनीय भाव उत्पन्न न हो जाए। सुबह सात बजे पौषध पूर्ण करके ही वह श्रावक घर गया। ___ जो गृहस्थ कीचड़ में कमल की तरह रहते हैं अपने जीवन में नैतिक मूल्यों का पतन नहीं होने देते, वे गृहस्थ प्रणम्य हैं। जो जीवन में उत्तम क्षमा, उत्तम मार्दव, उत्तम आर्जव, उत्तम शौच, उत्तम निर्मलता, उत्तम पवित्रता से भरे हुए हैं, जिनका हृदय पवित्र है, विचार पवित्र हैं, जिनका शरीर और वृत्ति पवित्र है, जिनकी दृष्टि, जिह्वा और शब्द पवित्र हैं, ऐसे गृहस्थ धन्य हैं। ___ मुझे याद है, एक युवक किसी साधु के पास पहुँचा और पूछा-'मैं गृहस्थ बनूँ या संत होऊँ, मार्गदर्शन दें। संत ने कहा–'तू मेरे साथ चल।' और वे उसे दूसरे नगर में ले गए, जहाँ स्वयंवर मंडप सजा हुआ था। विभिन्न देशों के राजा और राजकुमार राजकुमारी को वरण करने की इच्छा से वहाँ उपस्थित हुए थे। राजकुमारी वरमाला लेकर उपस्थित हुई। तभी उधर से एक युवा फकीर निकला। राजकुमारी ने देखा और उसने न जाने क्या सोचा कि वरमाला उस युवा फकीर के गले में डाल दी। फकीर ने इसका निषेध किया और तेज गति से रवाना हो गया। राजकुमारी भी उसके पीछे-पीछे चलने लगी। उस संत और युवक ने यह दृश्य देखा। संत ने कहा, 'हम भी इसके पीछे चलते हैं और देखते हैं कि आगे क्या होता है। चलते-चलते जंगल में पहुंच गए। वहाँ देखा कि युवा फकीर तो दिखाई नहीं पड़ रहा, राजकुमारी अकेली खड़ी थी। बहुत समय बीत गया। अचानक राजकुमारी बोली, 'मुझे भूख लग रही है। दोनों ने इधर-उधर देखा वहाँ कोई फल नजर नहीं आया। राजकुमारी भूख से तड़पने लगी। रात गहरी हुई, ठंड भी बढ़ने लगी। दोनों ने तिनके-लकड़ी इकट्ठे कर अलाव जलाया, लेकिन वह कन्या भूख से छटपटा रही थी। समझें, गृहस्थ के दायित्व 81 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003886
Book TitleDharm Aakhir Kya Hai
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalitprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2012
Total Pages162
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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