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सिद्धचक्र पूजन में गुनगुनाते हैं, 'इच्छा-रोधन तप नमो।' तप को नमस्कार हो, पर कौन-सा तप? जो हमारी इच्छाओं को नियन्त्रित करे। जितेन्द्रिय व्यक्ति भोजन करके भी उपवास कर लेता है और अजितेन्द्रिय व्यक्ति उपवास करके भी भोगों के प्रति आसक्त बना रहता है। भगवान कहते हैं
उवसमणो अक्खाणं, उववासो वण्णिदो समासेण।
तम्हा मुंजता वि य, जिदिदिया होंति उववासा।। इन्द्रियों के उपशमन को ही उपवास कहा गया है। जितेन्द्रिय लोग भोजन करते हुए भी उपवासी ही होते हैं।
रहस्य भरा सूत्र है यह और आज के धार्मिकों के लिए मील का पत्थर। भगवान कहते हैं भोजन न करके उपवास करना तो आम आदमी करता है। अगर तुम्हारे लिए भोजन का त्याग करना संभव न हो तो उपवास के और भी तरीके हैं, तुम अपनी इन्द्रियों का उपशमन कर लो। इन्द्रिय-विजेता ही सच्चा तपस्वी होता है। हाँ ! जितेन्द्रिय भोजन करके भी उपवासी हो जाता है।
देख रहा हूँ समाज में तपस्या का स्वरूप अब पूरी तरह बदल चुका है। जितनी तपाराधना लोग अब कर रहे हैं शायद पहले कभी न की हो, पर उपवास रह गये, उपवास की आत्मा हमसे छिटक गई है। ___ लोग तेले, अठाई, वर्षीतप न जाने क्या-क्या करते हैं, लेकिन इच्छा रहती है उनके पारणे पर सोने का सेट बनकर आ जाए। प्रभावना की जाए। वरघोड़ा निकले। सम्मान मिले। इच्छाएँ जब तक समाप्त नहीं होंगी, तपस्या का अर्थ ही कहाँ रह जाएगा? मासक्षमण में उत्सव मनाएँ, लेकिन दिखावा क्यों करें। तपस्या तो ऐसी होनी चाहिए कि उपवास करें तो किसी को पता ही न चल सके। तप कोई प्रदर्शन का माध्यम नहीं है। वह तो कषाय-मुक्ति
और हृदय-शुद्धि का अभियान है। तपस्या को समाज में वैभव-प्रदर्शन से न जोड़ा जाए। फिर आत्मा की शुद्धि का क्या अर्थ ? आपके पास धन नहीं है और इसी कारण आप तप नहीं कर सकते तो इससे बड़ी सामाजिक आत्म-प्रवंचना और कुछ नहीं है।
एक घर में देवरानी-जेठानी ने अठाई की। इन दिनों में उनसे मिलने आने वालों का तांता लगा रहा। उसकी सास और घर वाले तो आने वालों के लिए दिन भर चाय-नाश्ता बनाने में ही लगे रहे। भला, यह नाश्ता किस
धर्म, आखिर क्या है ?
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