SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 58
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ है कि खून बहना बंद नहीं होता। रोगी के परिवार वाले मुकदमा चलाते हैं। डॉक्टर को दो वर्ष की जेल भी हो जाती है, लेकिन क्या वह पापी है ? नहीं। वह परिवार और कानून की दृष्टि में अपराधी हो सकता है, लेकिन पापी नहीं। एक के भाव मारने के थे, लेकिन बच गया, फिर भी हत्यारा हुआ। दूसरे के भाव बचाने के थे, लेकिन मर गया, यह पाप नहीं हुआ। हिंसा और अहिंसा व्यक्ति के भावों पर अवलम्बित हैं। उसी की मानसिकता के आधार पर जीवन में बंधन होता है और मुक्ति भी। शरीर से किये जाने वाले दुष्कर्म अपराध की श्रेणी के होते हैं, लेकिन मन से किये गए कर्म पाप या पुण्य की श्रेणी में आ जाते हैं। वास्तविकता तो यह है कि हम बाह्य रूप से चाहे पाप से मुक्त हों, लेकिन आंतरिक रूप से कर्मों से मुक्त नहीं हो पाए हैं। हमारी मानसिकता और विचार उलझे हुए हैं। हमारी मिथ्या दृष्टि संसार में उलझी हुई है जिससे हम अनेकानेक शुभ और अशुभ भावों का संकल्प करते रहते हैं। हमें अपनी धारा को बदलना होगा। निम्न भावों से उच्च भावों की यात्रा करनी होगी। अपनी विचारधारा को जितना पवित्र बना सकें, बनाएँ। तुम मंदिर जाते हो भगवान के दर्शन करने। वहाँ कोई परिचित मिला उसने तुमसे परिवार-व्यवसाय के संबंध में पूछा। दर्शन तो कहीं रह जाते हैं, तुम मंदिर में भी संसार में उलझ जाते हो। तुम मंदिर गए थे कर्म बंधन से मुक्ति पाने, लेकिन बाँध लाए और नए कर्म। हम संत-समागम करते हैं, ताकि कुछ दृष्टि मिल सके, निर्जरा की जा सके, पर क्या सभी ऐसा कर पाते हैं ? बहु पुण्य केरा पुंज थी, शुभ देह मानव नो मळ्यो, तो ए अरे भव चक्र नो आंटो नहिं एके टळ्यो। अगर तुम्हारा विवेक तुम्हारे साथ में नहीं है, तो तुम्हें धर्मस्थल और धार्मिक सभाओं में जाने का कोई औचित्य नहीं है, क्योंकि वहाँ भी तुम्हारी तर्क-कैंची चलती रहेगी, शुभ-अशुभ विचारों की श्रृंखला शुरू हो जाएगी। तब कर्म-मुक्ति तो होगी नहीं, कर्म-बंधन जरूर हो जाएगा। तुम दूसरों के कपड़े निचोड़ने में लगे हुए हो तो क्या तुम्हारे हाथ सूखे रह पाएंगे ? तुम दूसरों की ओर एक अंगुली उठाते हो तो तीन अंगुलियाँ तुम्हारी ओर मुड़ जाती हैं। कर्म : बंधन और मुक्ति Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003886
Book TitleDharm Aakhir Kya Hai
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalitprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2012
Total Pages162
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy