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________________ क्या अर्थ है इसका ? तुम सामने वाले से तीन गुने अधिक दोषी या अवगुणी हो। इसके विपरीत तीन गुने अच्छे भी हो सकते हो, लेकिन इन छोटी-छोटी बातों में, छोटे से मजाक में छोटी-सी चर्चा में ऐसे निकाचित कर्मों का बंधन कर लेते हो कि जिनकी निर्जरा दीर्घ समय तक नहीं हो पाती। तुम सत् को असत् और असत् को सत् बनाने में लगे हुए हो जिससे कर्म-बंधन बढ़ता ही जाता है। तुम तीर्थ क्षेत्र में पापों से मुक्त होने के लिए जाते हो, पर कहीं वहाँ जाकर पाप तो नहीं बाँध आते ? कहा भी है-'अन्य क्षेत्रे कृतं पापं, तीर्थ क्षेत्रे विनश्यति'। संसार के पाप धोने के लिए तीर्थ क्षेत्र में जाते हो लेकिन तीर्थ में जो पाप करोगे उन्हें धोने के लिए कहाँ जाओगे? 'तीर्थ क्षेत्रे कृतं पापं, वज्र लेपो भविष्यति'। तुम किसी-न-किसी उठा-पटक में लगे रहते हो। तुम्हारे कषाय-कर्म बंधन कराते हैं। तुम्हारे भाव-विभाव अंतर्मन में गाँठों और वैर का निर्माण करते हैं। परिणामस्वरूप भगवान पार्श्वनाथ के पूर्वभव मरुभूति और कमठ के वैर की धारा दस भवों तक समाप्त नहीं हुई और भगवान महावीर के विशाखानंदी और सिंह के रूप में चलने वाली वैर की धारा विभिन्न रूपों में कई भवों तक जारी रही। तुम्हारा मन सदा चलायमान रहता है। उसके अंदर कुछ-न-कुछ पकता ही रहता है। तुम किसी को उठाने की और किसी को गिराने की सोचते रहते हो। पर याद रखो, अगर तुम किसी को संत-साधु या ब्रह्मचारी रखना चाहो और वह स्वयं न चाहे तो तुम्हारे हजार बंधन भी उसे रोक न पाएँगे और तुम किसी को गिराना चाहो तो तुम्हारे सैकड़ों अपघाती उपाय भी उसे विचलित नहीं कर पाएँगे। मनुष्य की मानसिकता सर्वोपरि है। जो शरीर से गिरता है वह तो कभी रुक भी सकता है, लेकिन जो मन से गिर गया उसे रोकने वाला कोई नहीं है। शरीर से गिरा हुआ तो सुधर भी सकता है, वह तो उठ भी सकता है, मुक्त भी हो सकता है। लेकिन जो मन से गिर गया उसे उठाने वाला कौन होगा ! जब तक मनुष्य की मानसिकता का विरेचन और निर्मलीकरण नहीं होगा, तब तक मुक्ति का मार्ग संभव नहीं। इसलिए जीवन बहुत सजगता, होश, विवेक और ध्यान के साथ जिओ। धर्म, आखिर क्या है ? Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003886
Book TitleDharm Aakhir Kya Hai
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalitprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2012
Total Pages162
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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