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हुए दिखाई देते हैं । सामान्य रूप से लेटी हुई प्रतिमा सीधी होती है, लेकिन बुद्ध की प्रतिमाएँ एक ओर करवट ली हुई होती हैं । जानते हैं क्यों ? उनके बारे में कहा जाता है कि वे जिस करवट सोते थे, जिस दिशा में मुँह करके सोते थे, सुबह उसी करवट, उसी दिशा में उठते थे। यह उनके जीवन की विशेषता थी ।
शिष्य पूछा करते थे कि ऐसा कैसे संभव हो पाता है, क्योंकि वे स्वयं सोते कहीं हैं और उठते कहीं और हैं। उत्तर दिशा में मुख करके सोए हो तो दक्षिण दिशा में सुबह होती है । एक करवट सोते हैं, दूसरी करवट उठते हैं। भगवान ने कहा, 'यह शरीर जागे-जागे सोता है ।' तुम्हें नींद में भी बोध रहना चाहिए कि तुम सो रहे हो । यह तभी संभव है जब व्यक्ति जागरूकता के साथ जीवन जीता है। भगवान कहते हैं कि न स्वप्न में जिओ, न सुषुप्ति में, वरन् जाग्रत अवस्था में जिओ । सतत जागते रहकर पूर्वार्जित कर्मों को नष्ट करो।
भगवान कहते हैं कि अर्थ बाहर नहीं, तुम्हारे भीतर है। तुम अपने होश को, बोध को और विवेक को जाग्रत करो। तब तुम्हारे अंदर धर्म प्रकट होगा। जो जागे हुए हैं वे धार्मिक हैं और जो सोए हुए हैं वे अधार्मिक। यतना में धर्म है, विवेक में धर्म है, जागृति और होश में धर्म है। धर्म मूर्च्छा और प्रमाद
नहीं है। मूल्य हिंसा का नहीं है, मूल्य 'है विवेक - अविवेक का, यतना-अयतना का। महावीर की पूरी प्रक्रिया यह है कि तुम जागो और जागने के साथ ही तुम धार्मिक होते चले जाओगे।
इतना विवेक रखो कि गेहूँ के साथ घुन न पिस जाएँ । भोजन बनाओ तो इतने होश और जागरूकता से कि भोजन बनाना भी पाप से मुक्त होने का निमित्त बन जाए। जाग जाओगे, तब भी कर्म तो जारी रहेगा, लेकिन तब कर्म बंधनकारी नहीं होंगे। उसके कर्म प्राकृतिक, नैसर्गिक कर्म होते जाएँगे । आखिर महावीर भी केवलज्ञान उपलब्ध होने के बाद कोई चालीस वर्षों तक जिए, तो कर्म भी किया ही । उठे भी, सोए भी, भोजन भी किया, उपवास भी किया, ध्यान भी किया और मौन भी रहे, बोले भी, चुप भी रहे - सब प्रकार का कर्म चलता रहा। लेकिन यह कार्य अब बाँधता नहीं है, क्योंकि इस कर्म में मूर्च्छा नहीं है । जो हो रहा है वह जागकर हो रहा है। अपने जीवन को
धर्म, आखिर क्या है ?
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