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________________ देने को तैयार हो गया, मगर पुत्र बच जाए, लेकिन क्या धन से जीवन खरीदा जा सकता है ? राजवैद्यों ने कह दिया कि राजकुमार कुछ घंटों के मेहमान हैं। सम्राट शैय्या के पास ही था, रानी भी वहीं थी, और भी बहुत लोग जमा थे। एक अजीब-सा सन्नाटा छाया हुआ था। मन-ही-मन सब राजकुमार के लिए दुआएँ माँग रहे थे। इस बीच सम्राट को झपकी आ गई। ___वह स्वप्न देख रहा था कि वह एक विशाल साम्राज्य का चक्रवर्ती सम्राट है। समस्त सुख, वैभव और ऐश्वर्य उसके राज्य में विद्यमान है। स्वर्ग का अनुपम आलोक बिखर रहा है। उसके दस पुत्र हैं। वह अपने पुत्रों के साथ क्रीड़ा कर रहा है। अत्यधिक आनन्द का अनुभव हो रहा था कि पत्नी ने एकदम जगा दिया। वह बिलखती हुई कह रही थी-राजकुमार ! राजकुमार ! उसके मुंह से शब्द नहीं निकल रहे थे। सम्राट जागा, उसने पूछा कि क्या हुआ ? पता चला कि राजकुमार नहीं रहा। वह स्तब्ध रह जाता है, क्षण भर के लिए वह निर्णय नहीं कर पाया कि क्या हुआ, लेकिन तुरंत ही ठहाका लगाकर हँस पड़ता है। सभी को आश्चर्य होता है कि अवसाद में ठहाका ! सभी प्रश्नसूचक दृष्टि से उसे देखने लगते हैं। रानी कहती है, 'सम्राट, यह क्या हो गया, आप ऐसे क्यों हँस रहे हैं ? अपना तो एकमात्र पुत्र चला गया।' सम्राट ने कहा, 'महारानी, आप तो एक पुत्र चला गया कह रही हैं, यहाँ तो मेरे ग्यारह पुत्र चले गए। 'कौनसे ग्यारह पुत्र' ? सभी ने चौंकते हुए पूछा। तब सम्राट ने अपना स्वप्न कह सुनाया। रानी ने कहा, 'वह सपना था और यह हकीकत है।' सम्राट पुनः मुस्कराया और कहने लगा, 'किसे सपना कहूँ और किसे हकीकत ? दोनों ही सपने थे और दोनों ही टूट गए। ___ आखिर तो संसार अध्रुव, अशाश्वत एवं दुःख-बहुल सपना है। और सपने कभी अपने नहीं होते। फिर भी मनुष्य क्षणिक सुख के लिए चिरकाल के दुःख स्वीकार कर लेता है। जैसे मछली आटे के चक्कर में जीवन गँवा देती है, भगवान कहते हैं वैसे ही मनुष्य काम-भोग के चक्कर में अपना जीवन खो देता है। पल भर के सुख के लिए जीवन भर का दुःख पाल लेता है। ठीक उसी तरह जैसे कुत्ता हड्डी चूसता है और अपने गाल में घाव कर लेता है। वहाँ से रिसने वाले खून-मांस में ही रस लेने लगता है। मनुष्य के संसार के सुखों की भी यही गति है। धर्म, आखिर क्या है? Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003886
Book TitleDharm Aakhir Kya Hai
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalitprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2012
Total Pages162
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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