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________________ अध्रुव और अशाश्वत के साथ तीसरा शब्द 'दुःख' प्रयोग करते हैं, क्योंकि जो अध्रुव और अशाश्वत है उससे दुःख ही मिलने वाला है। रात में देखे जाने वाले सपने सच होते हुए भी, आँख खुलने पर टूट जाते हैं, तब क्या मिलता है दुःख और क्षोभ के सिवा । तुम्हें सपनों से सुख नहीं निराशा और दुःख ही मिलता है। ठीक इसी तरह संसार के सारे भौतिक सुख अंततः दुःख ही देते हैं। जब तक तुम्हें वह ईश्वरीय संपदा नहीं मिलती जो सदा ही आनन्द और सुखकारी है, तब तक अन्य सभी कुछ अध्रुव, अशाश्वत और दुःख देने वाले हैं। तुम तब तक दीन-हीन हो जब तक बाहर सुख खोज रहे हो। बाहर का धन तुम्हें और अधिक निर्धन बनाता है। तुम उस सिकंदर की तरह हो जाते हो जो विश्व-विजय तो कर लेता है, लेकिन भगवान के द्वार पर जाता खाली हाथ ही है। उसका धन उसकी मृत्यु को कुछ क्षणों के लिए भी न टाल सका। यही असारता है। ध्रुव और शाश्वत तो मृत्यु है। जीवन अध्रुव और अशाश्वत है। जीवन को तो हवा का एक झौंका ही उड़ा ले जाता है। इस हवा को ध्यान के द्वारा स्थिर किया जा सकता है। भोग-उपभोग के लिए व्यय की गई ऊर्जा ध्यान की ओर मुड़ जाए तो जीवन का रूपांतरण संभव है। तभी तुम वास्तव में धनवान होते हो। किं नाम होज्ज तं कम्मयं, जेणाहं दुग्गइं न गच्छेज्जा। ___ हे भगवान ! इस दुनिया में मुक्ति का ऐसा कोई मार्ग बताओ कि मैं दुर्गति से बच पाऊँ। यह जगत तो प्रतिध्वनि है। जैसे किसी वीराने में या जंगल में हम कोई स्वर करते हैं तो वह हम पर लौट आता है। मनुष्य के जीवन के कर्मों का यही स्वभाव है। वह जो कर्म करता है वही प्रतिध्वनित होकर उसके पास लौट आता है। वही मनुष्य अगर ध्यान की महराई में उतर जाता है तो यही संसार जो अध्रुव और दुःख-बहुल दिखाई देता है इससे स्वयं को मुक्त कर लेता है। अन्यथा जीवन में पाने की ही आकांक्षाएँ बनी रहती हैं और वे दुःख का उद्भव करती रहती हैं। ... मुझे याद है, किसी सम्राट का एकमात्र पुत्र बीमार हो गया। रोग असाध्य था। राज चिकित्सक बुलाए गए। सभी प्रकार के प्रयत्न किए गए, मगर सभी बेकार। विकल सम्राट राजवैद्यों से अनुनय-विनय करने लगा कि किसी भी तरह उसके पुत्र को बचा लिया जाए। वह अपना सम्पूर्ण राजकोष मनुष्य दुःखी क्यों है? Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003886
Book TitleDharm Aakhir Kya Hai
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalitprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2012
Total Pages162
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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